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प्रस्ताव ८ : मदनमंजरी
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है । मैं अभी इस उद्यान को छोड़कर कहीं नहीं जा सकती। तुम शीघ्रता से जाओ और माता-पिता को सब समाचार बतला दो।
माताजी ! मैंने सोचा कि सखी ने जो निर्णय किया है, उसमें परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं है । अतः मैंने एक विशाल वृक्ष की कोटर में ठण्डे पत्तों की शय्या बनाकर उस पर उसे सुलाया और उसको शपथ दिलवायी कि वह उस स्थान से तनिक भी इधर-उधर नहीं जायेगी और असमंजसकारी कोई कदम नहीं उठायेगी। तदनन्तर तलवार जैसे काले बादलों को चीरती हई मैं वेगपूर्वक यहाँ आ पहुँची हूँ। अब आप जैसा उचित समझे वैसा करें। पिता का निर्णय
लवलिका से उपर्युक्त सारा वृत्तान्त सुनकर मेरे स्वामी महाराजा कनकोदर ने मुझ से कहा--देवि ! तुम शीघ्र मदनमंजरी के पास जाप्रो और उसे आश्वस्त करो । मैं सब सामग्री एकत्रित कर तुम्हारे पीछे-पीछे शीघ्र ही पहुंच रहा हूँ। अपने गुप्तचर चटुल ने अभी-अभी मुझे यह गुप्त संदेश दिया है कि स्वयंवर मण्डप से उठकर बिना मुझसे मिले जो विद्याधर राजा चले गये थे वे बहुत क्रोधित हैं । अतः मेरा सब प्रकार से सन्नद्ध होकर वहाँ आना ही ठीक रहेगा। मुझे कुछ भेंट भी ले जानी चाहिये । भेंट के लिये कुछ सामग्री एकत्रित करने में भी मुझे कुछ समय लगेगा। अतः तुम शीघ्र जाकर उसे धैर्य बन्धाओ।
__महाराज की आज्ञा को शिरोधार्य कर मैंने अपनी प्रिय दासी धवलिका को साथ लिया और लवलिका को मार्ग-दर्शन के लिये आगे कर, हम सब इस उद्यान में
आ पहुंची। माता का आगमन
यहाँ पहुँचते ही मैंने ठण्डे पत्तों की शय्या पर बैठी और योगिनी की भाँति किसी एक ही विषय के ध्यान में मग्न पुत्री मदनमंजरी को देखा । वह इतनी एकाग्र थी कि हमारे आने का भी उसे पता नहीं लगा। हम सब जाकर उसके पास में बैठ गये । फिर लवलिका ने उसके ध्यान को भंग करते हुए कहा --सखि ! माताजी आई हैं और तुम यों ही बैठी हो ?
लवलिका की बात सुनकर पुत्री की एकाग्रता टूटी। उसने आलस्य मोड़ा, आँखें झपकायीं और सम्भ्रम पूर्वक उठकर मेरे पांव छूए । मैंने आशीष दी-पुत्रि ! चिरंजीवी हो। तू मुझ से भी अधिक आयुष्यमान्, पतिव्रता और सौभाग्यवती हो । तेरा हृदयवल्लभ तुझे शीघ्र प्राप्त हो। फिर मैंने उसे ऊपर उठाया, आलिंगन किया, गोद में बिठाया, मुख चूमा, सिर सूघा और पुनः कहा-पुत्रि ! थोड़ा धैर्य धारण कर, शोक का त्याग कर । देख, मुझे ऐसा लग रहा है कि तेरी इच्छा अब शीघ्र ही पूरी होगी । तेरे पिताजी भी शीघ्र ही यहाँ आ रहे हैं अब तेरी इच्छा पूर्ति
में थोड़ी घड़ियाँ ही शेष रह गई हैं। Jain Education International
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