Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ८: कार्य-कारण-शृखला
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कर्मपरिणाम के दो सेनापति
प्राचार्य-भूपति ! याद करो, तुम्हें अभी मैंने बतलाया था कि जब तुम असंव्यवहार नगर में कौटाम्बिक के रूप में संसारी जीव के नाम से रहते थे तभी से तुम्हारी चित्तवृत्ति में अनादि काल से अन्तरंग राज्य रहा ही है, जिसमें चारित्रधर्मराज आदि की और महामोहादि नरेन्द्रों की दोनों सेनायें रहती हैं। ये दोनों सेनायें सर्वदा एक दूसरे के विरुद्ध रही हैं। कर्मपरिणाम महाराज को महामोह के प्रति कुछ अधिक प्रेम है; क्योंकि ये दोनों एक ही जाति के हैं । यद्यपि ये महाराज तेरी शक्ति पर निरन्तर सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं * तथापि ये दोनों पक्षों के मध्य साधारणतया निष्पक्ष जैसे रहते हैं । वास्तव में तो ये महाराजा प्रज्वलित अग्नि जैसे हैं और जब जिस पक्ष की प्रबलता देखते हैं तब उस पक्ष को प्रश्रय (टेका, बढावा) देते रहते हैं । यह स्थिति अनादि काल से चल रही है ।
कर्मपरिणाम महाराजा के दो सेनापति हैं, एक का नाम पापोदय है और दूसरा यही पुण्योदय है । पापोदय प्रकृति से ही अत्यन्त भयंकर और तेरे प्रतिकूल व्यवहार करने वाला है, अतएव महामोहादि तेरे शत्रुओं की सेना का एक भाग जो अत्यन्त दूषित है, रौद्र है, भयंकर है, क्रूर है और नितान्त असुन्दर है उसका सेनापति यह बन बैठा है । पुण्योदय तेरे अनुकूल है इसलिये कर्मपरिणाम की सेना का दूसरा भाग जो सुन्दर और श्रेष्ठ है, तेरा बन्धुरूप है, वह उस चारित्रधर्मराज आदि की शुभ सेना का सेनापति बना हुआ है । जब तू असंव्यवहार नगर में था तब से ही यह पापोदय स्पष्ट रूप से तेरे साथ लगा हुआ है। यह इतना स्पष्ट था कि तेरी पत्नी भवितव्यता ने भी कभी तुझे इसका विशेष परिचय कराने का प्रयत्न नहीं किया । नपति गुणधारण! तुम्हें संसार में जहाँ-तहाँ भटकाने वाला यह पापोदय ही है। एक के बाद एक होने वाली तेरी दुःख-सन्तति का कारण भी यह पापोदय ही है। हिंसा आदि तेरे अनर्थकारी शत्रुओं को तूने मित्र माना और तुझे हितकारी पुण्योदय को पहचानने भी न दिया, इन सबका कारण यह पापोदय ही है।
राजन् ! इस पापोदय ने तेरे चित्तवृत्ति अन्तरंग महाराज्य में से स्वयं तुझे ही बाहर निकाल फेंका है, तुझे पदभ्रष्ट किया है और तेरी आज्ञा का पालन करने वाले, तेरे एकान्त हितेच्छू चारित्रधर्मराज आदि अन्तरंग बल (सेना) को मार भगाया है। तेरा एकान्त अहित करने वाली महामोह आदि की सेना को तुझे सन्तोषदात्री मित्रों की सेना जैसी बताई है, उनके प्रति तेरे मानस में आसक्ति उत्पन्न की है। स्वयं भी ठगने में कुशल और अपने को छिपाने में समर्थ होने से पापोदय ने स्वयं को तुम्हारा प्रेमी और हितेच्छू प्रकट किया है। यद्यपि उस समय पुण्योदय
* पृष्ठ ७१०
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