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प्रस्ताव ८ : नौ कन्याओं से विवाह : उत्थान
शास्त्राभ्यास : अनशन
तदनन्तर मैंने समस्त साधु-क्रियाओं का अभ्यास किया, सदागम का गाढ़ प्रेमी बना और उसके द्वारा उपदिष्ट ग्यारह अंगशास्त्रों तथा कालिक और उत्कालिक सूत्रों का अध्ययन किया। सम्यग्दर्शन का अत्यन्त प्रेमी हया और चारित्रधर्मराज के प्रति मेरा प्रेम बढ़ता ही गया। उसके सैन्य का निकटता से परिचय प्राप्त किया और संयम तथा तपयोग से उसका पोषण किया। प्रमत्तता नदी आदि शत्रुओं के क्रीडास्थलों को भग्न कर चित्तवृत्ति को निर्मल किया। इस प्रकार गुरु-चरणों की सेवा और मुनिचर्या का पालन करते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया । अन्त में मैंने संलेखना अंगीकार कर अनशन किया। मेरी दिनचर्या को देखकर भवितव्यता मुझ पर प्रसन्न हुई और उसने मुझे दूसरी नवीन गुटिका देकर विबुधालय के कल्पातीत विभाग में प्रथम ग्रैवेयक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न किया।
वहाँ अत्यन्त मनोहर दिव्य पलंग पर अतिसुन्दर मूल्यवान सुकोमल वस्त्र बिछा हुआ था । अत्यन्त निर्मल प्राकृति में मैं वहाँ बहुत सुखपूर्वक रहा ।* मैं प्रथम ग्रैवेयक में तेईस सागरोपम तक रहा। वहाँ मेरा सम्पूर्ण जीवन सर्व प्रकार की विघ्न बाधाओं से रहित, शान्त और सुखानुभव पूर्ण बीता और मैंने सुखामृत का साक्षात् अनुभव किया। [४०४-४०५] सिंहपुर में गंगाधर
हे भद्रे ! मेरी पत्नी भवितव्यता के प्रभाव से तेईस सागरोपम के अन्त में मनुजगति के ऐरावत विभाग में सिंहपुर नगर में महेन्द्र क्षत्रिय की पत्नी वीणा की कुक्षि से मैं पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । यहाँ मेरा नाम गंगाधर रखा गया। यहाँ मेरे पराक्रम की बहुत प्रसिद्धि हुई । [४०६-४०७]
योग्य उम्र के प्राप्त होने पर अच्छा यश प्राप्त करने के पश्चात् मुझ जातिस्मरण ज्ञान हुआ । मैंने सुघोष नामक प्रात्मानुभवी प्राचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की
और उनके सान्निध्य में पूर्ववत् साधु की सभी क्रियाओं का अनुष्ठान किया । अन्त में संलेखना/अनशन आदि किया। भवितव्यता के प्रभाव से यहाँ से मैं दूसरे ग्रैवेयक में गया । [४०८-००६]
इस प्रकार अनुक्रम से फिर मनुष्य हुआ, दीक्षा ली, विधिपूर्वक पालन किया, अन्त में संलेखना/अनशनादि पूर्वक तीसरे ग्रैवेयक में गया । इस प्रकार पाँच बार मनुजगति में भावदीक्षा ग्रहण कर उत्तरोत्तर उन्नति करता हया और पाँच बार ग्रैवेयक में उत्तरोत्तर बढ़ता हुया गया। हे अगृहीतसंकेता ! इस प्रकार मेरी स्थिति प्रवधित होती गई । अन्तिम पाँचवें ग्रैवेयक में मैं सत्ताईस सागरोपम काल तक रहा। वहाँ मुझे चित्त को नितान्त शान्त करने वाली, सुख-समूह को प्राप्त कराने वाली अतिसुन्दर और अत्यन्त पवित्र कल्याणमाला प्राप्त हुई । [४१०-४१२]
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* पृष्ठ ७२८ Jain Educatioff International
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