________________
३५६
उपमिति भव-प्रपंच कथा
व्यवहार करना चाहिये और परोपकार में प्रवृत्ति करनी चाहिये । दुःख में पड़े प्राणियों के प्रति उपेक्षा नहीं रखनी चाहिये और समस्त जगत के प्राणियों के प्रति आह्लादकारी भावों को धारण करना चाहिये ।
३. हे आर्य ! मृदुता कन्या को प्राप्त करने के लिये जातिमद, कुलाभिमान, बलाभिमान, रूपगर्व, तपगर्व, धनगर्व, श्रुत-अहंकार, लाभमद, और अन्य के प्रति प्रेम रखने के मद / अभिमान का त्याग करना चाहिये । नम्रता धारण करनी चाहिये, विनय का अभ्यास करना चाहिये तथा अपने हृदय को नवनीत- पिण्ड जैसा मृदु बना लेना चाहिये ।
४. सत्यता कन्या की प्राप्ति करने के लिये दूसरों का मर्मोद्घाटन नहीं करना चाहिये, चुगली नहीं करनी चाहिये, निन्दा नहीं करनी चाहिये, कटु भाषण का त्याग करना चाहिये, कपटपूर्ण वक्रोक्ति छोड़ देनी चाहिये, परिहास (हँसीमजाक ) का त्याग करना चाहिये, असत्य या अर्धसत्य का त्याग करना चाहिये, वाचालता का त्याग करना चाहिये, अतिशयोक्ति रहित यथार्थता का उद्घाटन करना तथा सदा सत्य, प्रिय और मृदु बोलने का अभ्यास करना चाहिये । उक्त सद्गुण अनुशीलक के प्रति सत्यता स्वयमेव स्वतः ही अनुरागिरणी बन जाती है ।
५. ऋजुता की प्राप्ति के लिये कुटिलता का त्याग करना चाहिये, सर्वत्र सरल स्वभाव रखना चाहिये, दूसरों को ठगने की प्रवृत्ति छोड़नी चाहिये, मन को विशुद्ध रखना चाहिये, अपना व्यवहार सदा स्पष्ट रखना चाहिये, * विचारों में सदा उच्चता रखनी चाहिये और अपने अन्तःकरण को सदा दण्ड जैसा सीधा रखना चाहिये । ऐसा करने से ऋजुता स्वत: ही अनुरागिणी बन जाती है ।
६. अचौर्यता कन्या की कामना करने वाले को परपीड़न से डरना चाहिये, परद्रोह- बुद्धि का त्याग करना चाहिये, पर-धन-हरण - कामना का त्याग करना चाहिये । सदा यह लक्ष्य में रखना चाहिये कि पर-धन के अपहरण से कितनी निन्दा होती है, कितनी त्रास / पीड़ा होती है, कितनी दुर्गति होती है, अतः चोरी का सर्वथा त्याग करने से अचौर्यता स्वयमेव अनुरागवती होकर वररण करती है ।
७. हे आर्य ! मुक्तता को प्राप्त करने के लिये विवेक को श्रात्ममय करना चाहिये, श्रात्मा को बाह्य और अन्तरंग परिग्रह से अलग देखना चाहिये, परिग्रह प्राप्त करने की इच्छा का दमन करना चाहिये । जैसे पानी में रहकर भी कमल पानी से अलग रहता है वैसे ही अपने अन्तःकरण को सदा श्रर्थ और काम से अलग रखना चाहिये ।
८. हे कन्दमुनि ! ब्रह्मरति की प्राप्ति के लिये सुर-नर- तिर्यञ्च की सभी स्त्रियों को माता के समान समझना चाहिये । जहाँ वे रहती हों वहाँ नहीं रहना चाहिये, स्त्री - कथा नहीं करनी चाहिये, उनकी शय्या पर बैठना नहीं चाहिये, उनके
* पृष्ठ ७१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org