Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ८ : कार्य-कारण-शृंखला
३४६
तुझ से बहुत दूर जाकर चुपचाप बैठा है। अभी कर्मपरिणामादि चारों ने महाभाग्यशालीय सातावेदनीय राजा और पुण्योदय को तेरे निकट भेजा है और वे तुझे सुख पहुँचा रहे हैं। हे भूप ! अभी उनका पापोदय पर विशेष प्रेम नहीं होने से पवित्र पुण्योदय तेरे प्रति जागृत हुअा है । पुण्योदय ने तुझे बहुत सुख-परम्परा प्राप्त करवाई है और उसमें भी लोलुपता-रहित शान्त एवं प्रशस्त मानसिक स्थिति प्राप्त करवाई है। [२४६-२५६] |
संक्षेप में तेरे सभी सुन्दर-असुन्दर कार्यों के हेतु ये चारों महापुरुष ही हैं। इन्हीं चारों मनुष्यों को स्वप्न में देखा गया है, इसमें कोई संदेह नहीं। जब ये महापुरुष तुझ से प्रतिकूल होते हैं तब पापोदय को आगे कर तुझे अनेक प्रकार के दुःख और त्रास प्रदान करते हैं और जब ये अनुकूल होते हैं तो पुण्योदय को आगे कर भिन्न-भिन्न कारणों से अनेक प्रकार के सुख प्राप्त करवाते हैं। अभी तक तुझे जो कुछ भी शुभ या अशुभ प्राप्त हुआ है या भविष्य में होगा उन सब के निश्चित रूप से हेतु ये चारों महापुरुष ही हैं । [२६०-२६३] स्वयोग्यता
गुणधारण-गुरुदेव ! सुख-दुःख, शुभ-अशुभ प्राप्त तो मुझे ही होते हैं ? इनका अनुभव तो मैं ही करता हूँ, फिर क्या मैं स्वयं इनके विषय में कुछ नहीं कर सकता ? क्या मैं निरर्थक ही हूँ ?
प्राचार्य---- नहीं, राजन ! ऐसा नहीं है। अभी मैंने जिन महापुरुषों और सेनापतियों की बात की है, वे सब तो तेरे ही पारिवारिक जन हैं, उन सब का नायक तो तू स्वयं ही है ।* ये चारों महापुरुष तेरे विकास-क्रम की योग्यता की परीक्षा करने के पश्चात् ही निर्णय लेते हैं। फिर उस निर्णय के अनुसार ही तेरे सुख-दुःख-प्राप्ति के कारण बनते हैं, अत: तेरे सभी कार्यों में तेरी स्वयं की योग्यता (विकास) ही मुख्य कारण है। अतः हे नप ! अभी या भूतकाल में तूने जो कुछ भी अच्छे-बुरे अनुभव किये हैं, उन सब का मुख्य कारण तेरा स्वयं का विकास है, कर्मपरिणाम आदि तो सहकारी कारण हैं। अनादि काल से तेरा यह विकास-क्रम तुझ से संयुक्त है और उसी के अनुसार तेरा यह सब भव-प्रपञ्च (संसार-विस्तार) का निर्माण होता है । तेरी स्वयं की योग्यता के बिना ये कर्मपरिणाम आदि बेचारे शुभाशुभ आदि कुछ भी नहीं कर सकते । अतः अपने सभी अच्छे-बुरे कार्यों का प्रधान कारण (हेतु) तुम्हारा स्वयं का विकास-क्रम ही कहा गया है । वस्तुतः तुम स्वयं इनके नियोजक हो । [२६४-२७०] कार्यों का परम कारण सुस्थितराज
गुणधारण-नाथ ! आपने मेरे कार्यों की साधना हेतु जिन कारणों को बताया, उनके अतिरिक्त भी अन्य कोई कारण शेष रह गया है जिसे मैं अभी तक न जान सका हूँ? * पृष्ठ ७१२
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