Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
३४८
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
भी तेरे पास रहता था, पर वह तुझे पापोदय से अनुबद्ध देखकर तेरा अधिक हित नहीं कर सकता था। बीच-बीच में उसकी भलमनसाहत के अनुसार वह तुझे थोड़ाथोड़ा सुख देता था, किन्तु कल्याण-परम्परा को प्राप्त करवाने में वह कारणभूत नहीं बन पाता था। इसमें पुण्योदय का कोई दोष नहीं था। समस्त दोष तो पापोदय का ही था।
गुणधारण-गुरुदेव ! फिर पापोदय अभी चुपचाप कैसे बैठा है ?
प्राचार्य-देखो, राजन् ! यह पापोदय भी स्वतन्त्र नहीं है। यह भी कर्मपरिणाम, कालपरिणति, स्वभाव, भवितव्यता आदि के अधीन है। इन चारों महापुरुषों ने मिलकर अभी पापोदय को तुझ से दूर निकाल भगा दिया है। जब से इन चारों महापुरुषों की आज्ञा लेकर सदागम तेरे पास आया है तब से उन्होंने पापोदय को निर्बल बना दिया है। तभी से यह पापोदय तुझ से दूर खिसक कर बैठ गया है और तुझे दुःख पहुँचाने का हेतु नहीं बन सका है। परिणामस्वरूप तेरे सम्बन्ध में पुण्योदय को अधिक अवकाश मिला है, सुअवसर मिला है। हे भूप ! बीच-बीच में जब-जब ऐसी परिस्थिति आई है तब-तब भी तुझे सदागम पर अधिक प्रीति हुई है*
और सदागम के प्रताप से तुझे सुख की प्राप्ति हुई है। ये चारों महापुरुष जब भी पापोदय को तेरे निकट भेजते तभी तू फिर सदागम का साहचर्य छोड़ देता और पापोदय के वशीभूत होकर अनेक प्रकार के दुःख भोगता। [२४६-२४८]
हे नप ! ये चारों महापरुष विचार-विमर्श पूर्वक एकमत होकर तेरे सम्बन्ध में विचार करते थे और तेरे समस्त कार्यक्रम निश्चित करते थे। इस संसार में उन्होंने अनन्तबार पुण्योदय को तुझ से मिलाया, पापोदय को छिपाकर सदागम से तेरा मिलाप कराया। फिर जब उन्होंने अपने तेज से गृहिधर्म के साथ सम्यग्दर्शन को तेरे पास भेजा तब उन्होंने पापोदय को तुझ से अधिक दूर कर दिया और तेरी चित्तवृत्ति में जो उसकी सेना पड़ाव डाले हुए थी उसे भी पापोदय को दूर ले जाना पड़ा। इससे तुझे अधिक सुख प्राप्त हुआ। फिर पुण्योदय के साथ तेरा अधिक गाढ सम्बन्ध हुआ और चारों महापुरुषों ने तुझे पुण्योदय के साथ विबुधालय भेजा। वहाँ से तुझे फिर मानवावास में लाया गया और यहाँ तुझे अनेक प्रकार की कल्याणपरम्परा प्राप्त करवाई। एक बार फिर इन चारों महापरुषों ने पापोदय और उसकी सेना को तेरे निकट भेजा, जिससे तेरे सम्बन्धियों ने भी तेरा त्याग कर दिया और तुझे महान दुःख प्राप्त हुए। इस प्रकार तुझे असंख्य बार सुख मिला और गया, दुःख मिला और गया । सुन्दर और दूषित वस्तुओं का संयोग और वियोग भी अनेक बार हुआ।
राजन् ! इस राजमन्दिर में (सप्रमोदनगर में मधूवारण राजा के घर में) तेरा जन्म होने से पूर्व तुझे अनेक बार सुन्दर-असुन्दर वस्तुओं का संयोग-वियोग प्राप्त हो चुका है । अभी इन चारों महापुरुषों की आज्ञा से पापोदय अपनी सेना को लेकर • पृष्ठ ७११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org