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प्रस्ताव ८ : निर्मलाचार्य : स्वप्न-विचार
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इस संसार में सभी प्राणी सुखी होना चाहते हैं, पर सुख सुसाधुता के अतिरिक्त कहीं प्राप्त हो नहीं सकता है। अतः हे महासत्वों ! इस पर विचार करें और इसे पाचरण में उतारें। यदि आप लोगों को मेरी बात युक्तिसंगत प्रतीत होती हो तो आप भी इस प्रसार संसार का त्याग करें और सुसाधुता को अंगीकार करें।
[२३३-२४३] हे अगृहीतसंकेता ! उस समय मेरे कर्म कुछ क्षीण हो गये थे, अतः प्राचार्यप्रवर का उपदेश मुझे रुचिकर और सुखकारी प्रतीत हुआ। [२४४]
मैंने मन में सोचा कि भगवान् ने जो सुख का कारण बताया है उस पर मुझ आचरण करना चाहिये । हे भद्रे ! इस प्रकार मेरी दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा जागृत हुई।
[२४५] संशय-निवेदन
प्राचार्यश्री की मन को प्रमुदित करने वाली वचनामृत-वृष्टि के पूर्ण होने पर कन्दमुनि ने दोनों हाथ जोड़कर ललाट पर लगाते हुए खड़े होकर आचार्यश्री से पूछा--भगवन् ! इस संसार में किस प्राणी को समय व्यतीत करना दुष्कर होता है ?
प्राचार्य-गुरु के समक्ष जिसे अपनी जिज्ञासा के बारे में कुछ पूछना हो, उसे जब तक पूछने का अवसर न मिले तब तक समय बिताना कठिन होता है।
___ कन्दमुनि---भगवन् ! यदि ऐसा ही है तो गुणधारण राजा के मन के संदेह को दूर करने में आप पूर्णरूपेण समर्थ हैं, अतः उसे दूर करने की कृपा करें।
प्राचार्य -बहुत अच्छा ! मैं इसका संदेह दूर करता हूँ, सुनो।
मैंने (गुणधारण) कहा--भगवान् की महान कृपा । फिर मैंने कन्दमुनि से कहा---आपने मेरे संदेह के विषय में प्राचार्यश्री से पूछकर बड़ी कृपा की, मैं आपका बहुत आभारी हूँ।
कन्दमुनि-राजन् ! आप केवली भगवान् की कृपा के योग्य हैं, अब भगवान् के वचन ध्यानपूर्वक सुनें।
___ मैं अधिक विनयी बनकर मस्तक झुकाकर स्थिर चित्त होकर बैठ गया, तब निर्मलाचार्य ने कहा--हे गुणधारण राजन् ! तेरे मन में यह संदेह है कि राजा कनकोदर ने स्वप्न में जिन चार व्यक्तियों को देखा वे कौन थे ? फिर कुलन्धर ने स्वप्न में पाँच व्यक्ति देखे वे कौन थे ? वे किस प्रकार तेरे कार्यों को सिद्ध करते हैं ? वे देव थे या और कोई ? एक ने चार और दूसरे ने पाँच क्यों देखे ? ये दोनों स्वप्न-मात्र थे या इसका कुछ गहन अर्थ भी है ?
गुणधारण-हाँ, भगवन् ! आपने जैसा फरमाया वैसा ही संदेह मेरे मन में है।
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