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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
से उद्योतित/प्रकाशित हैं, पर वे अभी दूर देश में विहार कर रहे हैं । हे भद्र ! जब मैं उनके चरण-वन्दन के लिये जाऊँगा, तब तेरी शंका का समाधान उनसे पूछूगा। मुझे विश्वास है कि दोनों स्वप्नों के विषय में तुझे जो सन्देह है उस बारे में वे स्पष्ट निर्णय दे सकेंगे । वे महाज्ञानी हैं, अतः स्वप्न के भीतरी आशय/रहस्य को बराबर समझते हैं । [२००-२०४]
उत्तर में मैंने कहा-भगवन् ! यदि आपके गुरु महाराज निर्मलाचार्य स्वयं ही यहाँ पधार सकें तो कितना अच्छा हो ! [२०५] *
कन्दमुनि-हे महाभाग ! मैं तेरे कहने से गुरु महाराज के पास जाऊंगा और उन्हें यहाँ पधारने की प्रार्थना करूंगा। मुझे विश्वास है कि वे स्वयं यहाँ पधार कर तेरे मनोरथ पूर्ण करेंगे। अथवा उनकी आत्मा केवलज्ञान के प्रकाश से लोकालोक के समग्र भावों को जानती है, अतः तेरे मन के भावों को जानकर, मेरे बिना बुलाये भी वे स्वयं यहाँ पधार सकते हैं। जब तक वे यहाँ न पधारें तब तक तुम्हें सदागम और सम्यग्दर्शन के साथ गृहिधर्म का पूर्ण आदर करना चाहिये । [२०६-२०८]
गुरु महाराज के मधुर एवं कर्णप्रिय अन्तिम उपदेश को मैंने अत्यन्त प्रादरपूर्वक स्वीकार किया और कहा- भगवन् ! आपकी बहुत कृपा। मेरी पत्नी ने भी भगवान के वचनों को स्वीकार किया । हे भद्रे ! फिर गुरु महाराज को मुहुमुहुः विनयावनत होकर मस्तक झुकाकर वन्दन कर मैं अपनी पत्नी और मित्र के साथ उद्यान में से अपने राजभवन में आ गया। तत्पश्चात् महाभाग्यवान कंदमुनि भी अन्य मुनियों के साथ अपने गुरु निर्मलाचार्य के पादपद्मों का वन्दन करने वहाँ से विहार कर गये । [२०६-२११] गुरगधारण को राज्य-प्राप्ति
हे अगृहीतसंकेता ! इसके कुछ दिनों बाद मेरे पिता मधुवारण धर्म का सेवन करते हुए समाधि-मरण पूर्वक परलोक पधार गये।
मेरे बान्धवजनों, मन्त्रियों और सेनापति ने अत्यन्त हर्षित होकर महान् आनन्द से मेरा राज्याभिषेक किया। उस समय सभी प्रकार के योग्य महोत्सव आदि मनाये गये। मुझे राज्य-प्राप्त होते ही सारा राज्य मण्डल मेरा अनुरागी हो गया, शत्रु मेरे वशवर्ती हो गये, विद्याधर तो पहले ही वश में थे। देवता भी नतमस्तक होकर मेरी आज्ञा में रहने लगे। मेरा कोष, प्राज्ञा और समृद्धि भी बढ़ने लगी। धनुष-बाण चलाये बिना और क्रोध किये बिना ही मेरा राज्य निष्कंटक हो गया। सुखों की प्राप्ति होने पर भी मेरा मन उनमें लवलेश भी लुब्ध नहीं हया । मैं रातदिन सदागम और सम्यगदर्शन की अधिक प्राप्ति का प्रयत्न करने लगा। पुण्योदय से संयुक्त होकर गृहिधर्म का प्रादर करने लगा। सातावेदनीय राजा मुझे निरन्तर
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