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प्रस्ताव ८ : गुणधारण-मदनमंजरी-विवाह
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ने पास ही बैठे कुलन्धर से परामर्श किया और उसी स्थान पर संक्षिप्त विधि से अपनी कन्या का विवाह मुझ से कर दिया।
आनन्दपूर्वक विवाह-कार्य सम्पन्न कर राजा ने वज्र, वैदूर्य, इन्द्रनील, महानील, कर्केतन, पद्मराग, मरकत, चूड़ामणि, पुष्पराग, चन्द्रकान्त, रुचक, मैचक आदि बहमूल्य रत्नों से भरे अपने विमानों को * कुलन्धर को बताते हुए कहा--भद्र राजपुत्र ! ये विमान मैं पुत्री को दहेज में देने के लिये लाया हूँ। जिस प्रकार हमारी पुत्री से विवाह कर कुमार ने हमारे आनन्द में वृद्धि की है, उसी प्रकार हमारे इन विमानों में भरी हुई वस्तुओं को भी कुमार ग्रहण करें, ऐसा हमारा अनुनय है।
चतुर कुलन्धर ने उत्तर में कहा--आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। इसमें अनुनय का अवकाश ही कहाँ है ? "बड़े लोगों को जब जैसी इच्छा हो वैसी आज्ञा दे सकते हैं, राजपुत्रों से पूछने या कहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।" उत्तर सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए। उनको लगा कि वे कृत-कृत्य हो गये हैं, उनका जीवन सफल हो गया है । 'पुत्री मदनमंजरी आज सचमुच सन्तुष्ट और निश्चिन्त हुई है। इस विचार से महारानी कामलता भी परम सन्तुष्ट हुई और लवलिका आदि राजा का पूरा परिवार हर्षित हुआ।
___"पुत्री के जन्म पर शोक होता है, बड़ी होने पर चिन्ता होती है, विवाह योग्य होने पर संकल्प-विकल्प होते हैं और दुर्भाग्य से ससुराल में दुःखी रहे या विधवा हो जाय तो गाढ दु:खकारी होती है। अपने अनुरूप, रुचि के अनुकूल, मिष्ठ और धनवान योग्य वर को पुत्री प्रदान करने पर निश्चिन्तता प्राप्त होती है।" इसी के अनुसार रत्नराशि के साथ मदनमंजरी को मुझे प्रदान कर राजा और समस्त परिजन प्रमुदित थे। [८२-८४] युद्धातुर विद्याधर दल
__ इसी समय सप्रमोद नगर पर बादलों की तरह छायी विद्याधरों की एक बड़ी सेना आकाश मार्ग से आती हुई दिखाई दी। इन सैनिकों के पास अनेक चक्र, तलवारें, भाले, बर्छ, बाण, शक्तिबारण, फरसे, धनुष, दण्ड, गदा, नेजे आदि शस्त्रअस्त्र थे; जिनकी चमक से आकाश प्रकाशित हो रहा था। यह सेना अति विकराल, युद्धातुर, विजय-मद-गवित और असंख्य गगनचारी योद्धाओं तथा सेनापतियों से सुसज्जित थी। इसके योद्धा अपने सिंहनाद, करतल ध्वनि और जयनाद से आकाश को गुंजा रहे थे। इसके सैनिक कवच, शिरस्त्राण (टोप) आदि से सज्जित होकर क्रोधान्ध अवस्था में लड़ने को तैयार होकर आये थे । हमने सिर उठाकर देखा तब तक तो युद्धाभिमान से स्पर्धा करती हुई यह पूरी सेना आकाश में हमारे सिर के ऊपर आ पहुँची। [८५-८६]
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