Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्ररव ८ : गुणधारण और कुलन्धर
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हो गया। उस समय क्षणभर में मैं सोचने लगा कि कहीं यह कामदेव की पत्नी रति तो नहीं है ? साक्षात् इन्द्राणी तो नहीं है ? या विष्णु-हृदय-स्थित लक्ष्मी ही तो कहीं शरीर धारण कर नहीं आ गई है ? हे सुमुखि ! विचार ही विचार में मैं कामदेव के पुष्पबाणों से बिंध गया और मेरा मानस विकार-ग्रस्त हो गया। मेरे पास ही खड़े मेरे मित्र कुलन्धर ने कुछ जिज्ञासा पूर्वक मेरी तरफ देखा । मुझे लगा कि यह भी मेरे मन की बात भांप गया है । फिर मैंने अपने मुंह पर प्रकट होने वाले भावों को छिपाकर बात को उड़ाने का प्रयत्न किया। मेरे मन में उस समय यह विचार भी पाया कि "विवेकी पुरुषों को परस्त्री के सामने कामुक दृष्टि से नहीं देखना चाहिये, प्रतिष्ठित लोगों के लिये यह तो बड़ी लज्जा की बात है।" ओह ! मेरे मित्र ने यदि मुझे पराई स्त्री पर कुदृष्टि से झाँकते देख लिया होगा तो वह अपने मन में क्या सोचेगा? मैंने लज्जित होकर* उसकी दृष्टि बचाकर बार-बार उसकी तरफ देखा और यह जानने का प्रयत्न किया कि उस पर मेरी मनोवृत्ति का क्या प्रभाव हुआ है ? कला-कुशल कुलन्धर ने मेरे हृदय के भाव जान लिये थे, अतः उसने भी बात को घुमाते हुए मुझसे कहा - कुमार! हम बहुत समय से यहाँ खेल रहे हैं, अब मध्याह्न भी हो रहा है, अधिक रुकने से क्या लाभ ? चलो घर चलें । मैंने भी त' : कहा-हाँ भाई ! तुम्हारी जैसी इच्छा, चलो चलें। फिर हम दोनों अपने-.पने भवनों में चले गये और दिवसोचित शेष कार्य सम्पन्न किये । [२२-३७] गुरगधारण की काम-विह्वलता
रात में जब मैं अकेला अपने पलंग पर सोया तो खटाक से मेरी कल्पना में फिर वह मृगनयनी प्रमदा आ खड़ी हुई । हे भद्रे ! यदि मेरा पवित्र अन्तरंग मित्र पुण्योदय मेरे साथ नहीं होता और मेरी सहायता नहीं करता तो इस प्रमदा ने मेरे चित्त पर छाकर, न मालूम कितना बड़ा काँटा मेरे हृदय में चुभा कर घाव कर दिया होता और न जाने मेरी क्या गत बन गई होती, यह तो कहना ही असम्भव है। किन्तु, केवल निष्पाप पुण्योदय के निकट होने के कारण ही वह प्रमदा मेरे लिये अत्यधिक घातक बाधक नहीं बन सकी; क्योंकि निर्दोष पुण्योदय मित्र सांसारिक पदार्थों पर प्राणियों के मन को दढ एवं बन्धनरहित बना देता है। फिर भी उस कमल-नयनी की स्मृति से मुझे सहज चिन्ता हो गई कि वह कौन होगी ? किसकी पत्नी होगी ? इन्हीं विचारों में मुझे नींद आ गई और प्रातःकाल हो गया। पुनः उद्यान-गमन : कामलता-मिलाप
प्रातः कुलन्धर फिर मेरे पास आया। प्रमदा को फिर से देखने की किंचित् इच्छा से मैंने उससे पूछा.... क्यों मित्र ! आज फिर पालाद-मन्दिर उद्यान में चलें?
कुलन्धर ने मुस्कराते हुए कहा-- क्यों, क्या कोई चाबी वहाँ भूल आये हो क्या ?
* पृष्ठ ६८६
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