Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
किया और प्रचुर भोग भोगे । यहाँ महामोह और परिग्रह से कई बार भेंट हुई । मैंने उनसे सम्बन्ध बढ़ाया और उनके प्रति विशेष पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया। उन्हें मैंने अपना मित्र मान लिया । सम्यग्दर्शन और सदागम को तो मैं बिलकुल भूल ही गया। [६६०-६६२]
ज्योतिषी देव का मेरा काल समाप्त होने पर भवितव्यता ने फिर मुझे दूसरी गोली देकर पंचाक्षपशुसंस्थान में मेंढ़क के रूप में उत्पन्न किया। महामोहादि से सम्बन्ध बढ़ाने के कारण मेरी पत्नी भवितव्यता मुझसे रुष्ट हो गई थी और उसे मुझे नाच नचाने की आदत पड़ी हुई थी, इसीलिये मेंढक के भव की गोली जीर्ण हो जाने पर उसने मुझे नई-नई गोलियां देकर मुझसे अनेक रूपों में नाटक करवाये और अनेक स्थानों पर इधर-उधर भटकाया । [९६३-६६४]
वासव
नानाविध स्थानों में भ्रमण करवाकर मेरी पत्नी भवितव्यता ने फिर मुझे मानवावास के कम्पिलपुर नगर के राजा वसुबन्ध की धरा नामक रानी की कुख से वासव नामक राजपुत्र के रूप में उत्पन्न किया। यहाँ मेरे पास वैभव होने पर भी मैं सत्कृत्य करता था जिससे सर्व प्रिय हो गया था। युवक होने पर एक बार मैं शान्तिसूरि नामक सद्धर्मोपदेशक से मिला। हे भद्रे ! इनका उपदेश सुनने के बाद मुझे सम्यग्दर्शन और सदागम भी दिखाई दिये। इनके अधिक परिचय से मे सुहृदाभास शत्रु महामोहादि कुछ निर्बल हुए। महामोहादि भावशत्रु बाहर से मित्र जैसे लगते थे पर वास्तव में वे मेरे अान्तरिक शत्रु ही थे, किन्तु अभी तक मैं उन्हें अच्छी तरह नहीं परख सका था।
हे चारुभाषिरिण ! सम्यग्दर्शन और सदागम के सम्पर्क एवं प्रताप से यहाँ मुझे कुछ लाभ हुआ । यहाँ का काल समाप्त होने पर भवितव्यता मुझे दूसरे देवलोक में ले गई ।* यहाँ भी मेरा सम्यग्दर्शन और सदागम से परिचय हा। यहाँ बहुत समय तक मैंने देवताओं के दिव्य और अतुल सुखों का उपभोग किया और आनन्द में समय व्यतीत किया। [९६५-६७०) सम्यग्दर्शन और सदागम की जय-पराजय
देवलोक से मैं फिर मनुजगति के कांचनपुर नगर में आया। महामोह के दोष से यहाँ भी मैं सम्यग्दर्शन और सदागम को भूल गया । हे भद्रे ! इस प्रकार मैंने असंख्य बार सम्यग्दर्शन और महात्मा सदागम से भेंट की होगी और अनेक बार ये मेरे पास से चले गये होंगे। सम्यग्दर्शन तो मेरे पास से एकदम ही चले गये थे। इसका कारण यह था कि मैं संख्यातीत स्थानों पर भटका किन्तु अभी तक मैंने वास्तविक विरति (त्याग) भाव धारण नहीं किया था। मात्र ऊपरी श्रद्धा से
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