Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
पद्माक्षि ! यहाँ आकर मैं फिर सदागम को भूल गया। वह भी अपने अवसर की प्रतीक्षा करते हुए मुझे छोड़ कर मेरे से दूर चला गया। * मैं यहाँ डेढ पल्योपम तक महान ऋद्धि सम्पन्न देव के रूप में यथेष्ट सुख भोगता रहा और आनन्द में डूब कर लीलापूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगा। [८८५-८६०]
मेरा काल समाप्त होने पर सन्तुष्ट चित्त होकर मेरी पत्नी भवितव्यता ने फिर मुझे दूसरी गोली दी जिससे मैं मानवावास के बन्धुदत्त व्यापारी की पत्नी प्रियदर्शना की कुक्षि से बन्धु नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। क्रमशः बढ़ते हुए मैं तरुण हो गया। तब एक बार मैं सुन्दर नामक मुनि के सम्पर्क में आया। उनके समीप भी मैंने इन सदागम महात्मा को देखा। मुनीश्वर ने मुझे सदागम के विषय में कुछ बताया और शिक्षा देकर मेरी आँखें खोलने का प्रयत्न किया । हे भद्र ! इनके प्रभाव से मैं भावरहित जैन श्रमरण (द्रव्य साधु) बन गया ।।८६१-८६४]
द्रव्य श्रमणत्व के प्रभाव से मैं फिर विबधालय में व्यंतर रूप में उत्पन्न हुआ । यहाँ की महद्धि और सुख में मैं फिर सदागम को भूल गया। इसके पश्चात् मैं फिर मानवावास में लाया गया जहाँ फिर मेरी भेट सदागम से हुई। हे भद्र ! इस प्रकार मेरी भार्या भवितव्यता के निर्देश से अनन्त भवचक्र में भटकते हुए मैंने अनन्त बार सदागम से भेंट की और बार-बार इन्हें भूलता गया। इन महात्मा को भूल जाने से मैं अधिकाधिक भवचक्र में भटकता रहा और यदा कदा सदागम के सम्पर्क में आता रहा। इसके फलस्वरूप हे सुलोचने ! मैं अनन्त बार द्रव्य श्रावक बना, अनन्त बार द्रव्य साधु बना और मुझे इन महात्मा सदागम से मिलने का सौभाग्य भी मिलता रहा । जब-जब मैं महात्मा सदागम को भूलता तब-तब मुझे मेरी पत्नी भवितव्यता अनेक स्थानों पर ले जाती और भिन्न-भिन्न रूप से त्रसित करती। कई बार तो मैं इन महात्मा को भूलकर कुतीथिक यति (संन्यासी) आदि भी बना । उस समय मैंने इन सदागम महात्मा को झूठा और प्रपंची तक बतलाया । इस प्रकार की परिस्थितियां इस अन्तरहित भवचक्र में अनन्त बार उत्पन्न हुई । इस भवचक्र में भटकते हुए कई बार मेरी कर्मस्थिति लम्बी हुई और कई बार छोटी हुई। कई बार मोहराज आदि शत्रु बलवान होते और कई बार महात्मा सदागम के प्रभाव से भावशत्रु अंकुश में आते और निर्बल बनते । इस प्रकार बार-बार सदागम महात्मा से भेंट होते रहने से मेरा इनसे अधिकाधिक सम्पर्क परिचय बढ़ता गया। इस गाढ सम्पर्क से क्या हुआ ? यह भी तू सुनकर समझ लें। [८६५-६०५]
महात्मा सदागम के अधिक परिचय से मेरी चितवत्ति अटवी कुछ निर्मल हुई । योग्य अवसर जान कर सेनापति सम्यग्दर्शन मेरे पास आने के लिये उद्यत हा। उसने सद्बोध मन्त्री से कहा-आर्य ! आपने पहले मुझे योग्य अवसर की प्रतीक्षा करने के लिये कहा था। मुझे लगता है कि संसारी जीव के पास मेरे जाने
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