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प्रस्ताव ७ : श्रुति, कोविद और बालिश
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इस प्रकार मेरे मन में विचार चल रहे थे और 'मुझे क्या करना चाहिये' इस चिन्ता में पड़ा हुआ था। उसी समय मेरे मन के विचारों और प्राशय को समझने वाले मुनि अकलंक ने झट से अवसरानुसार बात छेड़ दी। वे बोले- भाई घनवाहन ! प्राचार्य भगवान् की वाणी तुझे बराबर समझ में आई या नहीं ? उत्तर में मैंने कहा-हाँ भाई ! बराबर समझ गया । बुद्धिमान् अकलंक ने अवसर का लाभ उठाकर तुरन्त कहा-यदि बराबर समझ में आ गई हो तब तो आज से ही उसी के अनुसार आचरण करना प्रारम्भ कर देना चाहिये । [७०६-७०७]
अकलंक पर मेरा अत्यन्त स्नेह था, भगवान् कोविदाचार्य के आस-पास का वातावरण भी अचित्य रूप से प्रभावित था, मेरी कर्मग्रंथि भी नष्ट होने के निकट पहुँच गई थी और मुझ में प्राचार्य के समक्ष कुछ कहने की सामर्थ्य भी नहीं थी, अतः मैंने अकलंक की बात स्वीकार करली। उसी समय पुनः सदागम फिर मेरे निकट पा पहुंचा। मैंने फिर से चैत्यवंदन आदि कृत्य प्रारम्भ कर दिये । पहले मैंने जो धर्म का अभ्यास किया था उसे फिर से याद किया, ताजा किया और फिर से दान आदि देना प्रारम्भ किया। इस समय महामोह और परिग्रह मेरे से थोड़े दूर खिसक गये थे। इन सब का ग्रहण मैंने मात्र अकलंक की लज्जा से ऊपर-ऊपर से किया था। मेरे मन में तो इनके प्रति किंचित् भी प्रेम नहीं था, क्योंकि मैंने इन सब को अन्तर्मन से स्वीकार नहीं किया था।
उस समय अकलंक को तो ऐसा लगने लगा मानो मेरी सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति कम हुई हो, मानो धनसंचय के सम्बन्ध में अब मुझे संतोष हो गया हो और सदागम के साथ मेरा पूर्ण सम्बन्ध हो गया हो। मेरी स्थिति को सुधरा हुना समझ कर अकलंक मुनि और प्राचार्य महाराज वहाँ से विहार कर अन्यत्र चले गये।
१३. शोक और द्रव्याचार
हे भद्र ! अकलंक मुनि के अन्यत्र विहार करते ही महामोह और परिग्रह फिर जाग्रत हुए, प्रसन्न हुए और मेरे निकट आगये तथा सदागम फिर मुझ से दूर चला गया। मैं फिर दान आदि सत्कार्यों के प्रति शिथिल हो गया। धर्मोपदेश पूर्णत: भूल गया और एकदम पशु जैसा बन गया । मुझ में जो धर्माकुर उगे थे वे व्यर्थ हो गये । धीरे-धीरे मैं पुनः विषय-सेवन में मून्धि और धन एकत्रित करने में तल्लीन हो गया। अनेक स्त्रियां और सुवर्ण एकत्रित करने में मैं प्रजा को अनेक प्रकार से
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