Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
जन्म रूपी रत्नद्वीप की दुर्लभता का भी क्या तुझे ध्यान नहीं रहा ? संसार बाजार में रहने वाले लोगों की स्थिति का पर्यालोचन कर क्या तुझे वैराग्य नहीं होता? अरे ! क्या तुझे तेरे चित्त रूपी बन्दर के बच्चे की चपलता भी स्मृति में नहीं रही ? क्यों भूल गया कि इस चित्त की निरन्तर रक्षा की आवश्यकता है । यदि तू उसकी रक्षा करना स्वीकार करता है तो फिर तदनुसार आचरण क्यों नहीं करता ? भाई ! क्यों विषवृक्षों पर कूद रहा है ? क्यों लोट-पोट होकर अर्थनिचय नामक पत्र-फल-फूल रूपी कर्मरज को अपने शरीर पर चिपका रहा है ? तू मोक्षमार्ग को भली प्रकार जानकर भी अपनी आत्मा को महाघोर नरक की तरफ क्यों घसीट रहा है ? तेरे चित्त की रक्षा द्वारा तेरी आत्मा को शिवालय मठ में पहुँचाने का जो उपाय बताया गया है, उसको उपयोग में लेकर अपने को सततानन्दी मोक्ष में क्यों नहीं ले जाता ? हे महाराज ! संसारी प्राणियों के लिये विपत्तियाँ तो हस्तगत के समान पग-पग पर हैं, प्रियजनों का वियोग भी सुलभ है, बड़ी-बड़ी बीमारियाँ दूर नहीं जो चलतेफिरते भी हो जाती हैं, दुःख भी एकदम पास में ही है जो क्षण-क्षण में चिपकने वाले हैं और मृत्यु तो निश्चित ही है। अत: निर्मल विवेक ही प्राणी का सच्चा रक्षक है, यही वास्तविक आधार है, अन्य कोई नहीं। शोक का पलायन
बहिन अगृहीतसंकेता! जैसे गहरी नींद में सोये को आवाजें देकर उठाया जाय, विष के असर में झूमते हुए व्यक्ति को संस्फुरायमान प्रवल मंत्रों द्वारा स्थिर किया जाय, मद्य के नशे में मदमस्त बने प्राणी का आकस्मिक भय द्वारा नशा उतारा जाय, या मूछित प्राणी को शीतल जल और पवन के योग से सचेत किया जाय और सन्निपात-ग्रस्त व्यक्ति की उन्मत्तता निपुण चिकित्सक की नियमानुसार चिकित्सा द्वारा ठीक की जाय, वैसे ही अकलंक मुनि की उपर्युक्त विस्तृत सुन्दर वचन-पद्धति से मुझ में कुछ शुद्धि आई, मैं स्थिर हया और मुझ में चेतना जाग्रत
__ इस स्थिति को देख शोक महामोह के पास गया और नमस्कार कर बोलादेव ! अब मैं जा रहा हूँ, अकलंक मुझे यहाँ रहने नहीं देता, बैठने नहीं देता । यह तो लट्ठ लेकर मेरे पीछे पड़ा है।
महामोह-वत्स शोक ! यह अकलंक बहुत ही क्रूर है, अति विषम है। यह घनवाहन के साथ मिल कर बेचारे को ठग रहा है, उसे विपरीत मार्ग पर ले जा रहा है। अब हमारा क्या होगा ? कुछ समझ में नहीं आता। अभी तो तू जा, पर सावधान रहना । हमारा मिलन आगे फिर कभी होगा ।
शोक - 'जैसी महाराज की आज्ञा' कहकर वह वहाँ से विदा हा।
मैंने भी अकलंक मुनि के वचन स्वीकार किये । सदागम के प्रति प्रेम प्रदशित किया तथा महामोह और परिग्रह के प्रति किंचित् तिरस्कार जताया। पहले
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