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प्रस्ताव ७ : महामोह का प्रबल अाक्रमण
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फिर, ज्ञानसंवरण ने मुझे अन्तरंग ज्ञान-प्रकाश से रहित कर दिया, मेरे विचार बुद्धि और तर्क पर पर्दे डालकर मेरी मति को घेर लिया।
फिर दर्शनावरण ने मुझ से धुर्र-धुर्र करवाया, मुझे निद्राधीन कर दिया। मुझे काष्ठ जैसा मूढ और चेष्टा रहित बनाकर किसी भी प्रकार के दर्शन से विमुख किया।
हे सुन्दरांगि! वेदनीय ने मुझे कभी अत्यन्त आह्लादित और कभी संतापविह्वल किया।
हे सुलोचने ! आयुष्य नृपति ने मुझे बहुत लम्बे समय तक घनवाहन के रूप में कायम रखा।
नाम नामक राजा ने अपनी शक्ति प्रदर्शित कर मेरे शरीर में अनेक चित्रविचित्र रूप बनाये।
हे सुमुखि ! गोत्र ने अपने प्रभाव से मुझे कभी उच्च वर्णीय और कभी नीच वर्णीय प्रसिद्ध किया । *
___अन्तराय ने मुझे लाभ, दान, भोग, उपभोग में अपनी शक्ति को प्रकट करने से रोका। [८०६-८१४]
हे विशालाक्षि ! पापात्मा दुष्टाभिसन्धि ने मुझे आर्त और रौद्र ध्यान में फंसाकर मुझसे अनेक पाप करवाये ।
इनके अतिरिक्त भी महामोह की सेना में जितने भी महारथी महायोद्धा थे उन सबने बारी-बारी से तत्काल ही मेरे पास आकर अपनी-अपनी शक्ति से मुझे प्रभावित किया।
मुनि अकलंक की उपेक्षा के कारण मैं अनाथ जैसा हो गया था, अत: मेरे इन भाव-शत्रुओं ने निर्भय होकर मुझे अनेक प्रकार से कथित एवं पीड़ित किया।
[८१५-८१७] एक बार मुझे त्रस्त करने के लिये मकरध्वज (कामदेव) महामोह नरेन्द्र के पास आया। वह अपने साथ अपनी पत्नी रति, विषयाभिलाष मंत्री और उसके पांच कुटुम्बियों (बच्चे, पांच इन्द्रियों) को साथ लेकर आया। हे मृगलोचनि ! अपने कार्य को सिद्ध करने के लिये वह कवच-सन्नद्ध होकर हाथ में तीर कमान लेकर आया । कामदेव को देखकर मोहराज अत्यन्त प्रसन्न हुए। स्वयं कामदेव भी अपने स्वरूप को देखकर प्रमुदित हुआ। मकरध्वज के सम्मिलन से तो मोहराज मदमस्त गन्ध हस्ति की तरह अत्यन्त बाधक बनकर मुझे अनेक प्रकार की पीड़ा देने को उद्यत हो गया। [८१८-८२२]
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