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प्रस्ताव ७ : महामोह का प्रबल श्राक्रमरण
किया और सब ने एकमत होकर नीरदवाहन से एकान्त में कहा - कुमार ! अब घनवाहन अगम्य स्त्रियों में प्रासक्त, मर्यादाहीन, बुद्धिहीन, नष्टधर्म पशुतुल्य एवं कुलकलंकी हो गया है । अब यह श्वान तुल्य नराधम इस राज्य सिंहासन के योग्य नहीं रह गया है । यह तो राज्य को खो चुका है और वंश को भी इसने लज्जित कर दिया है । अब इसका विनाश निकट ही है, अतः अब राज्य के प्रति उपेक्षा करना आपको और हमें शोभा नहीं देता । विरोधी राज्यों को हमारे राजा की इस अधोगति का पता लगे, उसके पहले ही राज्य की बागडोर आपको संभाल लेनी चाहिये । अन्यथा न आपके भाई रहेंगे, न राज्य रहेगा, न संपत्ति रहेगी, न हम रहेंगे, न मर्यादा रहेगी और न यह नगर ही बच पायेगा ।
मेरे भाई नीरदवाहन ने उनकी युक्तियुक्त बात को सुना और उनकी अभिलाषा एवं चेष्टायें देख कर वह उस पर विचार करने लगा । [ ८३८-८४५]
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हे भद्रे ! इधर मेरे प्रतिश्रधम व्यवहार से निर्बल पड़ा हुआ मेरा अन्तरंग मित्र पुण्योदय भी अत्यधिक उद्विग्न हुआ और अन्त में मेरी अत्यन्त नीचता पूर्ण वृत्ति से घबराकर मुझे छोड़कर चला गया । मेरे पापों की अधिकता से मेरे भावशत्रु बढ़ते गये, परिणामस्वरूप मेरे कर्म की स्थिति अधिक लम्बी हो गई । इन सब प्रान्तरिक और बाह्य कारणों से मन्त्री, सामन्त और प्रजाजनों की बात को युक्तियुक्त समझ कर विचारपूर्वक नीरदवाहन ने राजा बनना स्वीकार कर लिया । नरवाहन की सम्मति प्राप्त होते ही उसी समय सैनिकों ने शराब के नशे में चूर मुझ को श्राकर बाँध लिया । मैंने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, पर मेरे कर्मचारियों या मेरे भाई-बन्धु आदि किसी ने मेरी कोई सहायता नहीं की । हे सु ! उस समय नरक के परमाधामियों की तरह मेरे मन्त्रियों और सेनापति आदि ने मिलकर मुझे नरक तुल्य महाभयंकर कैदखाने में डाल दिया । [८४६-८५१] * सब ने मिलकर मेरे छोटे भाई नीरदवाहन का राज्याभिषेक बड़े हर्षोल्लास से किया । सब लोग हर्षित होकर नाचने लगे और हृदय से संतुष्ट हुए । कुस्वामी के नाश और सुस्वामी के गुणों से प्रसन्न सैनिकों और प्रजा ने खूब खुशियाँ मनाई । प्रसन्नता की उर्मियों को प्रकट करने के लिए उस समय प्रजा और सैनिकों ने क्याक्या उत्सव नहीं मनाए ? [ ८५२ - ८५३ ]
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मल, मूत्र, कचरे आदि प्रतितुच्छ पदार्थों की दुर्गन्ध से भरा हुआ वह कैद - खाना जिसमें मुझे रखा गया था बहुत संकड़ा और फिसलन भरा माता के गर्भ जैसा था । भूख-प्यास से व्याकुल और लोहे की जंजीरों से जकड़े हुए मुझ को छोटे बच्चे भी मेरे पहले के दुर्व्यवहार को याद कर मारते और तिरस्कार करते थे । यातना - स्थानों में भी मेरे सम्बन्धीजन श्राकर मेरा तिरस्कार करते । नरक में जैसे नारकी जीवों को शारीरिक सन्ताप दिया जाता है वैसे ही अनेकविध शारीरिक सन्ताप मुझे
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