Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ७ : सागर, बहुलिका और कृपणता
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सत्कार्यों का त्याग कर दिया और अकलंक मुनि के आने के पहले जैसा था वैसा ही हो गया। सभी प्रकार का द्रव्यस्तव शिथिल हो गया और मैं संसाररसिक बनकर महापरिग्रह में मूछित हो गया। [७४४-७४५] कोविदाचार्य की शिक्षा
हे भद्रे ! कृपासागर अकलंक मुनि ने जब मेरा वृत्तान्त सूना तब उनके मन में फिर से मुझे सुमार्ग पर लाने का विचार उठा। उन्होंने अपने गुरु कोविदाचार्य को प्रणाम कर फिर से मेरे पास आने की आज्ञा मांगी।
विचक्षण प्राचार्य ने मुनि के हृदय के सद्भाव को समझ कर कहा -वत्स अकलंक ! तेरा यह प्रयत्न व्यर्थ होगा, अतः वहाँ जाने के कष्ट का त्याग कर । क्योंकि, जब तक महामोह और परिग्रह उसके समीप डेरा डाले पड़े हैं, तब तक हे मुनि ! उस घनवाहन पर कुछ भी असर नहीं होगा । वह कर्मशील नहीं बन सकेगा। ये दोनों मूल नायक हैं और सागर आदि अनेकों के प्राश्रय स्थान हैं। वे सभी एक के बाद एक उसके पास नियम पूर्वक पाते रहेंगे। वह वर्तमान में उन दुष्टों के वश में हो रहा है, अत: अभी उसे कैसा उपदेश ? कैसा धर्म ? कैसे सदागम का मिलन सम्भव हो सकता है ? अभी उसे धर्मदेशना देना तो बहरे के आगे बीन बजाना, अन्धे के समक्ष नाचना और ऊसर भूमि में बीज बोने के समान है। [७४६-७५२]
कदाचित् मान लें कि तेरे प्रयास से उसमें कुछ परिवर्तन हो भी जाय तो वह बहुत ही थोड़ा और अल्पकालीन होगा तथा तुझे अपने ज्ञान-ध्यान की विशिष्ट हानि होगी। तेरे द्वारा बार-बार जागृत करने पर भी जब तक वह महामोह और परिग्रह के पाश में जकड़ा रहेगा तब तक वह महामोह की भावनिद्रा में ही पड़ा रहेगा, अतः हे आर्य ! अभी तेरा घनवाहन के निकट जाना व्यर्थ है। जिससे स्व-कार्य की हानि हो ऐसे कार्य में विचक्षण लोग नहीं पड़ते । [७५३-७५५]
अकलंक-भगवन् ! आपका कथन सत्य है, पर बेचारे इस धनवाहन का इन अनर्थकारी दुष्टों से कब छुटकारा होगा ? विद्या और निरीहता
कोविदाचार्य-तुम्हारे जैसे प्राणी चारित्रधर्मराज के सेनापति सम्यगदर्शन को तो जानते ही हैं। इस सेनापति ने चारित्रधर्मराज के साथ मिल कर अपने वीर्य से एक विद्या नामक अति मनोहर मानस-कन्या निर्मित की है । यह अत्यन्त रूपवती, विशाल आँखों वाली, जगत को आह्लादित करने वाली, विश्व के भाव और अर्थ को जानने वाली और सर्व अवयवों से सुन्दर है।* संसारातीत लावण्यवती यह कन्या सतत उद्दाम लीला से विलास करती हुई, स्त्री सम्बन्ध से दूर रहने वाले मुनियों को भी अति प्रिय है। यह सभी सम्पदाओं की मूल, सब क्लेशों को नष्ट करने वाली और
* पृष्ठ ६७१ Jain Education International
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