Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
पद्म-खण्डों/ कमल वनों से सुशोभित है, आकर्षक उद्यान है, सरोवरों से मंडित है, कमनीय विहार स्थल है, सुगन्धित पुष्पों और वनराजियों से स्पृहणीय हो रहा है और श्रेष्ठ लोगों का अभिलषणीय स्थान है। अतः यहाँ अधिक समय तक सुख का उपभोग करने के पश्चात् स्वस्थान की ओर चलेंगे। मुझे तो यहाँ से जाना ही अच्छा नहीं लगता । वैसे मैंने भी तेरे समान माल से जहाज भर लिया है।
यह कह कर मूढ ने काच के टुकड़ों से भरा हा जहाज चारु को दिखाया। काच के टुकड़ों को देखकर चारु को मूढ पर दया आती है और वह उसे हित शिक्षा देते हुए कहता है-मित्र ! काननादि कौतुकों में और मौजमस्ती में समय नष्ट कर तूने अच्छा नहीं किया। रत्न के भ्रम से कुरत्नों/काच के टुकड़ों का तूने संग्रह किया है, अतः तू इन कुरत्नों का त्याग कर और इन सुरत्नों को ग्रहण करने का प्रयत्न कर । मित्र! * सुरत्नों के लक्षण ये हैं । इस प्रकार चारु ज्यों ही रत्नों के लक्षण बताने लगा त्यों ही मूढ क्रोधावेश में आकर बोला--
मैं नहीं जाऊंगा। तुम्हें जाना हो तो तुम जानो। तुम्हें जो कार्य करना हो, करो। तुम जैसा चाहते हो वैसा नहीं होगा। तुम मेरे देदीप्यमान रत्नों को काच के टुकड़े बताते हो । मुझे तुम्हारे सुरत्नों से कोई लेना देना नहीं। इस प्रकार मूढ ने कृपापूर्वक हितशिक्षा-दान देने को उद्यत चारु का मुह-तोड़ जवाब देकर उसको तिरस्कृत किया।
मढ के इस व्यवहार से चारु ने विचारपूर्वक निश्चय किया कि यह मूढ हितशिक्षा देने योग्य नहीं है ।
इसी प्रकार भद्र धनवाहन ! चारु के तुल्य भगवत्स्वरूप मुनिगण जब मूढ जैसे दुर्भव्य या अभव्य प्राणियों को धर्मोपदेश देने के लिये तत्पर होते हैं, उनके समीप जाते हैं और उन्हें विशुद्ध धर्म का उपदेश देकर मोक्षगमन के लिये प्रामन्त्रित करते हैं तब ऐसे मूढ-सदृश प्राणी गुरु महाराज से कहते हैं :
__ अरे साधुओं ! हमें तुम्हारा मोक्ष नहीं चाहिये। तुम भी उस मोक्ष में जाकर क्या करोगे ? देखो, तुम्हारे मोक्ष में न खाना है, न पीना है। न कोई भोग विलास है और न कोई ऐश्वर्य । वहाँ न तो दिव्य देवांगनाओं का संयोग है और न ही कमनीय कमलाक्षियों के कटाक्ष । वहाँ किसी प्रकार का प्रेम-संभाषण, नाच, गाना, हँसना, खेलना कुछ भी तो नहीं है। हन्त ! इसे मोक्ष कहते हैं ? यह तो बन्धन हुआ। [३८६-३६०]
देखिये, हमारा यह संसार का विस्तार तो हमारे चित्त को अत्यन्त आनन्दित करने वाला है, हमें तो अत्यन्त रमणीय लगता है। संसार में हमें खूब खानापीना, धन, सम्पत्ति, विलास, आभूषण मिलते हैं और कमलाक्षी स्त्रियों के साथ इच्छित आनन्द भोगने को मिलते हैं। हम स्वेच्छानुसार आचरण करते हैं, नाचते
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