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प्रस्ताव ७ : संसार-बाजार (प्रथम चक्र)
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बार-बार ऐसी तात्त्विक भावना करता रहूँगा जिससे इस संसार के जाल से चित्त का बन्धन हटेगा । मेरे चित्त का संसार के साथ अनादि काल से सम्बन्ध होने से यह संसार की तरफ दौड़ेगा तो अवश्य, परन्तु उसकी यह दौड़ आत्मा के लिये हानिप्रद है, यह जानकर प्रयत्नपूर्वक चित्त को उधर जाने से रोकूगा और उसे समझाऊंगा कि, हे चित्त ! तुझे इस प्रकार बाहर भटकने से क्या लाभ ? तू तो अपने स्वरूप में ही स्थिर रह, जिससे आनन्द में लीन रह सके । यह संसार बाहर भटकने के समान ही है क्योंकि यह दुःखों से भरा हुआ है और अपने स्वरूप में रहना ही मोक्ष है, जो अनेक सुखों से परिपूर्ण है। अतः सुख प्राप्त करने की इच्छा से बाहर भटकना व्यर्थ है, अयुक्त है। क्योंकि संसार तो दुःखपूर्ण ही है। आत्मा में स्थिर रहने से तुझे इस जन्म में भी बहुत सुख मिलेगा और यदि तू बाहर भटकेगा तो इस भव में भी बहुत दुःख प्राप्त करेगा। कहा भी है :
पराधीनता ही पूर्ण दुःख है और स्वाधीनता ही पूर्ण सुख है । बाह्य-भ्रमण पराधीनता है और आत्मरमण ही स्वाधीनता है। प्रात्मा के बाहर रही हुई कोई भी वस्तु तुझे प्रिय लग सकती है, पर तुझे यह जानना चाहिये कि वे सभी वस्तुएं नाशवान हैं, दुःखदायी हैं, आत्मस्वरूप से भिन्न हैं और मैल से भरी हुई हैं।
अतः हे चित्त ! ऐसी वस्तुओं के लिये तू क्यों व्यर्थ में ही कष्ट उठाता है ? आत्मा को छोड़कर क्यों इस प्रकार बारम्बार बाहर भटकता है ? यदि आत्मा के बाहर की कोई वस्तु सुन्दर होती तो वह दुःख निवारण में भी समर्थ होती, पर आत्मस्वरूप में तेरी स्थिरता के अतिरिक्त कोई भी बाह्य वस्तु वास्तव में दुःख निवारण में समर्थ नहीं है। जब तू भोग रूपी भयंकर अंगारों से जलता है तब तुझे प्रानन्द स्वरूप प्रात्मा में ही शान्ति मिलती है, फिर तू बाह्य भ्रमण का व्यर्थ ही कष्ट क्यों उठाता है ? * अतएव हे चित्त ! तू अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य और आनन्द से परिपूर्ण अात्मा में स्थिर होकर शीघ्र ही निराकुल बन । [४६३-४७५]
आत्मा में स्थिर रहने से भोग रूपी चिकनाई सूख जाती है जिससे निःसंदेह चिपकी हुई कर्मरज अवश्य ही गिरती जाती है । तेरे शरीर पर जो भयंकर धारियां पड़ गई हैं वे अत्यन्त दूषित वासनाओं से उत्पन्न हुई हैं । परन्तु, जब तू इन वासनाओं की पीड़ा से मुक्त होगा तब तुझे भोगों पर कोई प्रीति नहीं रहेगी। विद्वानों का कहना है कि इन धारियों में पड़े ये भोग-पिण्ड (गांठे) जैसी हैं, जो थोड़ी सी देर आनन्द देती हैं, पर जब इन भोग-पिण्डों को भोगना पड़ता है तब वे अधिक पीड़ादायक होती हैं। भोगों को भोगने के समय थोड़ी देर आनन्द प्राप्त होता है, किन्तु दूषित वासनायों के ध्यान से ये अन्त में पीड़ा को अधिक बढ़ावा देती हैं। यदि तेरे शरीर से बरी वासनाएं निकल जायं तो वह निर्विघ्न निरन्तर आनन्दयुक्त बन जाय । ऐसी स्थिति के प्राप्त होने पर तुझे भोग की इच्छा ही नहीं रहेगी। अतः हे चित्त !
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