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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
मानसिक आह्लाद का कारण है और बुरी योनियों में गिरते हए प्राणियों का हस्तावलम्ब है । दर्शन मन को अतिशय प्रमुदित करने वाला, महा क्षेमकारी और मोक्ष में निक्षेप/स्थापन कराने वाला है। चारित्र हृदय को प्रफुल्लित करने वाला, निरन्तर आनन्दोत्सव कराने वाला है और * जीव-वस्त्र पर अनादि-काल से लगे मैल को स्वच्छ करने वाले शुद्ध जल के समान है। तप सर्व संगरहित बनाता है और असंयुक्त (अनागत) कर्म-मैल को रोकने वाला है। संयम भवभ्रमण के भय को दूर करने वाला और भविष्य के हर्ष का कारण है । हे भव्यजनों ! यह सब जानते हुए भी यह तुम्हारी कैसी अविद्या, कैसा मोह, कैसा आत्मवंचन और कैसी आत्म-शत्रुता है कि विषयों में अत्यन्त मुग्ध बनते हो, स्त्रियों पर मोहित हो, धन पर लुब्ध होते हो, सम्बन्धियों के प्रति प्रगाढ स्नेह रखते हो, तरुणाई पर फूले नहीं समाते हो और अपना रूप देख-देख कर हर्षित होते हो। तुम्हें अनुकूल प्रसंग प्राप्त होने पर प्रसन्न होते हो, हितकारी उपदेश देने वाले पर क्रोधित होते हो, गुणों से द्वेष करते हो और हमारे जैसे सहायक के साथ होने पर भी सन्मार्ग से भागते हो । सांसारिक सुखों से हृष्ट होते हो, ज्ञान का अभ्यास नहीं करते हो, दर्शन का आदर नहीं करते हो, चारित्र का पालन नहीं करते हो, संयमित नहीं होते हो और तप आदि के द्वारा आत्मा को गुण-पुञ्जों का पात्र नहीं बनाते हो।
हे भविकजनों! यह तुम्हारी कितनी बड़ी भूल है ! कैसा प्रमाद और कैसी आत्म-वंचना है ! तुम्हारी यह प्रवृत्ति कितनी अधिक हानिप्रद है ! जब तक तुम्हारी ऐसी प्रवृत्ति रहेगी तब तक हे भद्रों! तुम्हारा मनुष्य-जन्म निरर्थक है। हमारे जैसों का सान्निध्य भी निष्फल है । तुम्हें यह अभिमान है कि तुम उपयुक्त सभी बातों के जानकार हो, यह भी निष्प्रयोजन है। तुम्हें भगवान के दर्शन की प्राप्ति हुई है, पर उससे भी तुम्हें कोई लाभ नहीं है। तुम्हारी प्रवृत्तियों से तुम्हारे अपने ही हाथों अपने स्वार्थ का नाश हो रहा है, इसका कारण तुम्हारा अज्ञान ही है । तुमने इन विषयों का लम्बे समय तक सेवन किया है, फिर भी तुम्हें न तो सन्तुष्टि तृप्ति हुई है, न होने की है, फलतः तुम्हारे जैसों का इनमें पासक्त होकर बैठे रहना उचित नहीं है। अतः अब भी विषयासक्ति का त्याग करो, स्वजनों के प्रति ममता को छोड़ो, धन-संग्रह और घर-गृहस्थी की झूठी ममता/व्यसन का परिहार करो, सब संसारी कचरे को फेंक दो, भागवती दीक्षा ग्रहण करो और सत्य, ज्ञान आदि गुरगों का संचय करो। हम जब तक तुम्हारे पास हैं तब तक अपनी प्रात्मा को गुणों से भर दो और अपने पारमाथिक स्वार्थ को सिद्ध कर लो । यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो हमारी हितशिक्षाओं के अभाव में सद्बुद्धि-रहित होकर तुम अपने स्वार्थ से भ्रष्ट हो जानोगे ।
[चारु ने योग्य को जो उपदेश दिया उसे सुसाधु के वचनामृत तुल्य समझना चाहिये।
* पृष्ठ ६३७
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