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प्रस्ताव ७ : रत्नद्वीप कथा का गूढार्थ
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समय योग्य जैसे देशविरतिधारक श्रावकों को मोक्ष का निमन्त्रण देते हुए उन्हें उपदेश देते हैं । उत्तर में श्रावक कहते हैं कि अभी उनमें इतने गुरण-रत्न एकत्रित नहीं हुए हैं कि वे स्वस्थान जा सकें। योग्य जैसे गुणों के प्रति रुचि रखने वाले प्राणियों को चारु जैसे साधु पुरुष कहते हैं कि यद्यपि यह मनुष्य जन्म ऐसा है कि इसमें सद्गुण एकत्रित करने का कार्य सरलता से हो सकता है और ऐसा करना प्राणी के स्वाधीन है, तथापि आपने हमारी भांति सम्पूर्ण गुण रत्नों को एकत्रित नहीं किया, इसका क्या कारण है ?
_उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में श्रावक बताते हैं कि इन्द्रिय-विषयों का व्यसन और धन के प्रति ममत्व ही सम्पूर्ण गुण-रत्नों को एकत्रित करने में विघ्नभूत बने हैं।
जैसे चारु ने योग्य को कहा था-भद्र ! रत्नद्वीप में आकर भी काननादि कुतूहलों में समय गंवाना उचित नहीं है। यह कुतूहल विशिष्ट रत्नों को ग्रहण करने में न केवल महाविध्नकारी बना है अपितु आत्मवंचना का कारण भी बना है । तुम जानते हो कि यहाँ के अमूल्य रत्न सुख के कारण हैं तदपि उनका अनादर करके तुम आत्म-शत्रु क्यों बनते हों ? तुम यह भी जानते हो कि लम्बे समय तक मौज-मस्ती मारने पर इसकी पूर्ति/तृप्ति कभी नहीं हुई, अतः तुम्हें स्व-अर्थ की साधना में ही प्रवृत्त होना चाहिये। अन्यथा तुम्हारा रत्नद्वीप आगमन निरर्थक ही सिद्ध होगा । अतएव हे मित्र ! कौतुकों का त्याग कर मेरे सान्निध्य में महऱ्या रत्नों का उपार्जन कर, अन्यथा तू स्वार्थ लक्ष्य भ्रष्ट हो जायेगा।
__ चारु की हितशिक्षा सुनकर योग्य अत्यन्त लज्जित हुआ । उसने अपनी भूल स्वीकार की और भविष्य में मौज-शौक में समय न खोकर, रत्नद्वीप में रहते हुए मात्र रत्न एकत्रित करने का ही कार्य करने का आश्वासन दिया और शीघ्र ही अपना जहाज सच्चे रत्नों से भर लिया। वैसे ही भद्र घनवाहन ! मुनिपुंगव भी देश विरति श्रावकों को हित-शिक्षा देते हैं :
सज्जनों ! तुम्हें मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है तुमने जिन-वचनामृत रस का प्रास्वादन किया है । संसार की असारता और निरर्थकता तुम्हें ज्ञात है। शरीर मल-कीचड़ से भरा हुआ है, तारुण्य संध्याकालीन बादलों की भांति क्षण-क्षण में नष्ट होने वाला है, जीवन ग्रीष्म-तप्त पक्षी के गले जैसा चञ्चल है और स्वजनवर्ग का स्नेह-विलास थोड़े समय में स्वतः ही नष्ट होता अपनी आँखों से देख रहे हो । ऐसी अवस्था में धन और इन्द्रिय-विषयों पर ममत्व कैसे उचित कहा जा सकता है ? यह तो स्पष्टतः अपने आप को ठगना हुआ । ज्ञान आदि विशिष्ट रत्नों की प्राप्ति में तो इस ममत्व से विध्न ही होता है । भद्रों! तुम लोग जानते हो कि इन्द्रिय विषयों के फल बहुत भयंकर और मन को उद्वेलित करने वाले हैं। स्त्रियां चञ्चलहृदया होती हैं । स्त्रियाँ चिर सुख का स्थान भी नहीं है और वे प्रात-रौद्र ध्यान का कारण भी हैं । तुम्हें यह भी ज्ञात है कि ज्ञान सुगति मार्ग का प्रदीप है, अत्यन्त
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