Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंचा कथा
जैसे मूढ रत्नद्वीप तो पहुँचा किन्तु वह स्वयं रत्न-परीक्षा-ज्ञान से शून्य होने पर भी दूसरों की शिक्षा को भी अग्राह्य समझता था, मौज-मस्ती में ही सारा समय बर्बाद करता था, अमूल्य रत्नों का तिरस्कार करता था, कांच के टुकड़ों को महऱ्या रत्न समझता था, धूर्तों ने उसे अच्छी तरह से छला था और वह स्वयं अपने को ठगता रहता था वैसे ही हे भद्र घनवाहन ! मूढ जैसे निकृष्ट जीव किसी प्रकार रत्नद्वीप रूपी मनुष्य भव को प्राप्त करके भी स्वयं अभव्य या दुर्भव्य होने से तथा गुरुतर/भारी कर्मी होने से न तो स्वयं धर्म के गुण-दोष की परीक्षा कर सकते हैं और न ही किसी चारु जैसे सद्गुरु के उपदेश को सुनने का ही उन्हें अवकाश होता है । पाँचों इन्द्रियों के विषयों में तथा धन के संचय और रक्षण में वे अत्यन्त लुब्धता से प्रवृत्ति करते हैं। शांति, दया आदि शुद्ध अनुष्ठान रूपी गुणरत्नों के प्रति वे द्वष करते हैं और स्नान, होम, यज्ञ आदि जीवघातक तथा जीवसंतापक पापकारी अनुष्ठानों के प्रति धर्म-बुद्धि रखते हैं। ऐसे कुअनुष्ठानों का वे स्वयं तत्त्वबुद्धि से आचरण करते हैं। इस प्रकार कुतीथिकों द्वारा ऐसे निकृष्ट प्राणियों का धर्मधन चुराया जाता है और वे स्वयं को अनेक प्रकार से ठगते रहते हैं।
७. रत्नद्वीप कथा का गूढार्थ
अकलंक ने रत्नद्वीप कथा का विस्तृत विवेचन करते हुए कहा--जैसे चारु ने अपना जहाज मूल्यवान रत्नों से भर कर स्वदेश जाने की इच्छा से अपने मित्र योग्य के पास जाकर कहा कि, मित्र ! अब मैं स्वदेश जाना चाहता हूँ, क्या तुम भी साथ ही चल रहे हो ? इस पर योग्य ने कहा था कि, मेरा जहाज अभी तक भरा नहीं है। मैं थोड़े से ही रत्नों का संग्रह कर पाया हूँ। यह सुनकर जब चारु ने इसका कारण पूछा तो * उत्तर देते हुए योग्य ने कहा कि, इस व्यवसाय में मेरी मौज-मस्ती ही बाधक बनी है। इसी प्रकार हे भद्र धनवाहन ! चारु जैसे महात्मा मुनिराज अपनी आत्मा को तप, संयम, शांति, संतोष, ज्ञान-दर्शन आदि मूल्यवान् भाव-रत्नों से भरकर जब मोक्ष रूपी स्वस्थान में जाने की इच्छा प्रकट करते हैं, उस
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