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प्रस्ताव ७ : लोकोदर में प्राग
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स्थानों पर बैठकर सिद्धान्त-वाचन, सूत्र-पाठ और ज्ञान-ध्यान में अपना समय व्यतीत कर रहे हैं। ये सभी साधु अत्यधिक निर्मल कान्ति-सम्पन्न थे और दूर-दूर बैठे हुए ऐसे लग रहे थे मानो बाह्यद्वीप समुद्र में स्थित चन्द्र हों! बाह्य दृष्टि से भी बुद्धिशाली दिखाई देते थे। अत्यन्त सुन्दर प्राकृति वाले और इच्छित फल को देने वाले वे साधु कल्प-वृक्षों के समान सुशोभित हो रहे थे। [६७-७२]
उस समय अकलंक ने मुझ से कहा-कुमार घनवाहन ! देखो, देखो ! ये मुनिपुंगव कामदेव जैसे रूपवान, सूर्य जैसे तेजस्वी, मेरु पर्वत जैसे स्थिर, समुद्र जैसे गम्भीर और महाऋद्धिवान देवताओं के समान लावण्य सम्पन्न दिखाई देते हैं। ये ऐसे अनेक गुणों के भण्डार तेजस्वी महापुरुष तो राज्य-भोग भोगने के योग्य हैं, फिर ये भाग्यशाली पुरुष ऐसे दुष्कर चारित्र का पालन क्यों करते हैं ? इन्होंने ऐसे कठिन साध्वाचार को क्यों ग्रहण किया होगा? मेरे मन में ऐसे कई स्वाभाविक प्रश्न उठ रहे हैं और मन में कौतूहल पैदा हो रहा है, अतः चलो, हम इन मुनिपुंगवों के पास चलें और प्रत्येक से वैराग्य का कारण पूछे ।
मैंने भी अकलंक के प्रस्ताव को स्वीकार किया और हम दोनों उन मुनिगणों के पास प्रश्न पूछने के लिये चले गये।
२. लोकोदर में आग
सिद्धान्त का पाठ करते हुए एवं ज्ञान-ध्यान में व्यस्त अलग-अलग बैठे हुए मुनियों में से एक के पास मैं और अकलंक गये। पहले हम दोनों ने मुनिराज को वंदन किया। फिर अकलंक ने शांत स्वर से मुनिराज से पूछा-भगवन् ! आपका संसार पर से वैराग्य होने का क्या कारण बना ?
उत्तर मैं मूनि बोले-सूनिये, मैं लोकोदर नामक ग्राम का रहने वाला एक कौटुम्बिक/गृहस्थ हूँ। एक रात इस नगर में चारों तरफ भारी आग लग गई। चारों तरफ धुए के बादल छा गये और अधिकाधिक अग्नि-ज्वाला की लपटें निकलने लगीं । बांस फूटने जैसी कड़-कड़ की आवाजें होने लगीं। आवाजें सुनकर लोग जाग गये । चारों और कोलाहल मच गया। बच्चे चिल्लाने लगे, स्त्रियां दौडभाग करने लगीं, अन्धे हो-हल्ला/कोलाहल करने लगे, पंगु उच्चस्वर से रोने लगे, कुतुहली खिलखिलाने लगे,* चोर चोरी करने लगे सब वस्तुएं जलने लगीं, कंजूस लोग विलाप करने लगे और सम्पूर्ण नगर माता-पिता-रहित अनाथ जैसा हो गया। * पृष्ठ ६१३
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