Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
मिटाया, फलस्वरूप मेरी चेतना अधिक स्पष्ट हुई। अन्य विद्यार्थियों की संगति से मुझ में जो उन्माद था उसे इन महात्मा ने बहुत यत्नपूर्वक मिटाया। जब इन महाभाग्यशाली महात्मा ने देखा कि मेरा मन स्वस्थ हुअा है और मैं उनकी बात समझने योग्य हुआ हूँ तब उन्होंने मुझे बताया कि सारा मठ ही उन्माद और सन्निपात-ग्रस्त है। मैंने देखा कि सभी छात्र अव्यक्त स्वर से बोल रहे हैं, प्रलाप कर रहे हैं, ऊंघ रहे हैं और दुःख में डूबे हुए हैं। यह दृश्य देख कर मैं अत्यन्त भयभीत हुआ। [२४७-२५३]
___ मुनि ने कहा-भद्र ! भोजन के दोष से तू भी ऐसा ही था, तेरी भी ऐसी ही दशा थी। देख, तेरे शरीर पर अभी भी अजीर्ण के विकार दिखाई देते हैं। देख, जैसा करने के लिये मैं तुझे कह रहा हूँ, यदि तू वैसा नहीं करेगा तो तू फिर से ऐसे ही दुःख में डूब जायेगा ।
मुनि महाराज के उपदेश को सुनकर, उस पर विश्वास कर और मठवास के भय से भयभीत होकर मैंने इस भोजन के अजीर्ण का शोधन करने वाली दीक्षा स्वीकार की । अब ये मुनिपुगव मुझे जिन-जिन क्रियाओं/अनुष्ठानों को करने के लिये कहते हैं उन सब को मैं सम्यक् प्रकार से करता हूँ। यही मेरे वैराग्य का कारण है। [२५३-२५६]
मुनिराज की बात सुनकर अकलंक ने प्रेम से नेत्र ऊपर उठाये, मुनि को वन्दन किया और अगले मुनि की तरफ जाने लगा। उस समय मैंने अकलंक से पूछा--मित्र मुझे तो मुनि की बात समझ में नहीं पाई, अतः उसके भावार्थ को स्पष्ट रूप से तुम समझायो। [२५७-२५८] कथा का रहस्य
___ अकलंक ने कहा--भाई घनवाहन ! मुनि शिरोमणि ने * इस संसार को मठ की उपमा दी है। लोह-शलाका के समान संसार में प्राणी भिन्न-भिन्न रूप धारण करते हैं। वे अनेक प्रकार के हैं और एक-दूसरे से सम्बन्धरहित भी हैं, अतः मठ निवासी साधुओं के समान हैं। इनके कोई माता-पिता, सगे-सम्बन्धी नहीं हैं। ये परमार्थ से धनरहित हैं और ये सभी जीव परस्पर सम्बन्धरहित हैं । संसार-मठ में रहने वाले जीव रूपी परिव्राजक-विद्यार्थियों के पास बन्धहेतु नामक भक्त परिवार आता है। बन्धहेतु तो विचित्र प्रकार के होते हैं और कई हैं, पर उनमें से मुख्य पाँच हैं। अतः बन्धहेतु परिवार के संग्राहक और संचालक मुख्य पाँच व्यक्ति कहे गये हैं :-प्रमाद, योग, मिथ्यात्व, कषाय और अविरति । ये पाँच जीवों के बन्धहेतु हैं। प्राणी पर अनादि काल से मोह राजा का असर इतना अधिक है कि मोहराज और उसका उपयुक्त परिवार जो वास्तव में प्राणी के कर्मबन्ध के हेतु होने से उसके शत्रु हैं, फिर भी उसे हितकारी मित्र जैसे लगते हैं । मठ
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