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प्रस्ताव ७ : चार व्यापारियों की कथा
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इन दोनों के साथ स्वदेश लौटा। मूढ को इन्होंने वहीं छोड़ दिया। तीनों मित्रों ने स्वदेश में पहुँच कर अपने-अपने रत्न बेचे जिससे उनको अपार लक्ष्मी प्राप्त हुई और वे आनन्द से परिपूर्ण होकर सुख से रहने लगे। [३७७-३७६]
मूढ रत्नद्वीप में मौज-शौक ही करता रहा, उसने रत्न एकत्रित नहीं किये । परिणामस्वरूप वह निर्धन हो गया और अनेक प्रकार से दुःखी होने लगा। वहाँ के किसी क्रोधी राजा ने उसके दुर्व्यवहार से क्रोधित होकर उसे रत्नद्वीप से बाहर निकाल कर भयंकर जल-जन्तुओं से भरे हुए और भयानक लहरों से त्रास देने वाले आदि-अन्त-रहित अदृष्टतल वाले समुद्र में फेंक दिया। [३८०-३८१]
सौम्य अकलंक ! मेरे पूज्य आचार्यदेव ने मुझे उपर्युक्त कथा कही, जिसे सुनकर मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ । यही मेरे वैराग्य का कारण है। [३८२]
___ अकलंक कथा का भावार्थ रहस्य भली प्रकार समझ गया था जिससे उसका मुख-कमल विकसित हो गया। इन मुनि को नमस्कार कर अकलंक अन्य मुनि के पास जाने लगा। [३८३]
मैंने कहा-मित्र अकलंक ! तुमने तो मुनिराज से वैराग्य का कारण पूछा जिसके उत्तर में मुनि ने उपर्युक्त कथा सुनाई। मुझे तो इस कथा से वैराग्य का कोई सम्बन्ध ही प्रतीत नहीं होता । यह कथा तो असम्बद्ध-सी लगती है। मुझे तो तो इस कथा का भावार्थ कुछ भी समझ में नहीं आया। [३८४]
कथा का उपनय
अकलंक बोला-भद्र धनवाहन ! मुनिराज ने कोई असंबद्ध बात नहीं की। इस कथा में बहुत गूढ रहस्य छिपा हुआ है, ध्यानपूर्वक सुन ।
कथा के वसन्तपुर नगर को असंव्यवहार जीवराशि समझना चाहिये । सुन्दरतम, सुन्दरतर, सुन्दर और निकृष्ट चार प्रकार के विकास क्रम के अनुसार संसारी जीवों को यथार्थ नामधारक चार व्यापारी चारु, योग्य, हितज्ञ और मूढ समझना चाहिये । संसार के विस्तार को समुद्र समझ। समुद्र की भांति संसार में भी जन्म जरा, मरण रूपी पानी रहता है। जैसे प्रतिगम्भीर समुद्र को पार करना कठिन है वैसे ही अतिगहन मिथ्यादर्शन और अविरति के कारण संसार को पार करना कठिन है । जैसे समुद्र में चार बड़े पाताल कलश हैं, वैसे ही संसार विस्तार में भी चार महा भयंकर कषाय रूपी पाताल कलश हैं । जैसे समुद्र की ऊंची-ऊंची दुर्लध्य लहरें महा भयंकर लगती हैं वैसे ही संसार में महामोह की लहरें बहुत भयंकर होती हैं। समुद्र में बड़े-बड़े जलजन्तु रहते हैं वैसे ही यह संसार अनेक प्रकार के दुःख रूपी जन्तुओं से भरा है। समुद्र में जैसे तीव्र गति के पवन से समुद्र क्षुब्ध होता रहता है वैसे ही संसार में रागद्वेष रूपी तेज पवन से निरन्तर क्षोभ उत्पन्न होता रहता है । समुद्र उफनते हुए पानी से प्रत्येक क्षण चपल रहता है वैसे ही यह संसार भी संयोगवियोग रूपी उफानों से सदा चंचल रहता है। समुद्र ज्वार से आकुल रहता है वैसे ही संसार अनेक प्रकार के मनोरथ रूपी ज्वार से निरन्तर व्याकुल रहता है। जैसे
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