Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 1010
________________ प्रस्ताव ७ : मदिरालय २२६ प्राणी हुंकारा देता है, इसी को धर्मोपदेश के बोध की स्वीकृति समझना चाहिये । इसी को "दर्शन, मुक्ति-बीज, सम्यक्त्व, तत्त्ववेदन, दुःखान्तकृत्, सुखारम्भ" आदि नामों से जाना जाता है । ये सभी शब्द एक ही बात (हंकार) की सूचना देते हैं। जब प्राणी सम्यग् दर्शन युक्त होता है तभी तत्त्वश्रद्धान से उसकी आत्मा पवित्र हो जाती है, कृतकृत्य हो जाती है, फिर वह संसार समुद्र में नहीं भटकता । ऐसा प्राणी सम्यग् शास्त्र के अनुसार जिसका जैसा वास्तविक स्वरूप होता है, उसे वैसा ही अपनी बुद्धिचक्षु से देखता है । जैसे किसी प्राणी का नेत्र-रोग नष्ट हो जाने पर उसे वस्तुओं का रूप ठीक-ठीक दिखाई देता है वैसे ही वह यथास्थित रूप को देखकर प्रशान्त अन्तरात्मा से परम संवेग-भाव का प्राश्रय लेकर वस्तुओं में स्थित प्रान्तरिक भावों पर यथायोग्य विचार करता है। [१६७-१७७] ऐसे प्राणी की विचारधारा इस प्रकार की होती है-यह भयंकर संसार-समुद्र जन्म, मरण, वृद्धावस्था, व्याधि, रोग, शोक से परिपूर्ण और प्राणियों को अनेक प्रकार के क्लेश उत्पन्न कराने वाला है । जब कि जन्ममरण-भय आदि क्लेशों से रहित और बाधा-पीड़ा-वजित स्थान मोक्ष ही प्राणी के लिये सुखकारी है । हिंसा आदि दु:ख संसार-वृद्धि के कारण और अहिंसा आदि बाधा-पीड़ा-रहित मोक्ष के कारण हैं। यों बुद्धि-चक्षु से संसार का निर्गुणत्व और मुक्ति के गुणत्व को देखकर विशुद्ध आत्मा अागम में कथित नियमानुसार उसके लिए प्रयत्न करता है । जैसे कोई कामी पुरुष अपनी प्रिय वल्लभा को प्राप्त करने के लिए अनेक दुष्कर कठिन कार्य करता है वैसे ही मोक्ष प्राप्त करने की दृढ़ इच्छा वाला प्राणी क्षुद्र प्राणियों को अति दुष्कर लगने वाले महान कार्यों और अनुष्ठानों को भी पूरा करता है। उपादेय मनोज्ञ वस्तु को प्राप्त करने के प्रयास में जो कठिनतम अनुष्ठान आदि किये जाते हैं उससे उसके मन में तनिक भी पीड़ा नहीं होती, क्योंकि साध्य को प्राप्त करने की मन में दृढ इच्छा होती है और चित्त तथा विचार प्रतिबन्धित हो जाते हैं । एकबार साध्य को प्राप्त करने में मन लग जाने के बाद उसके प्रयत्न में किये गये परिश्रमों से उसे कोई कठिनाई प्रतीत नहीं होती। ऐसे विचारवान व्यक्ति को तो उलटे त्याज्य वस्तु को ग्रहण करने में कठिनाई होती है। जैसे व्याधिग्रस्त व्यक्ति जब कटु औषधोपचार से आरोग्य प्राप्त करने लगता है तब उसे कड़वी दवा पीने में भी बुरी नहीं लगती और उसे प्रोतिपूर्वक नियमित रूप से लेता है, वैसे ही उत्तम मनुष्य जब अपने को संसार-व्याधि से ग्रस्त देखता है और जब उपचार करने पर उसे समता रूपी आरोग्य प्राप्त होने लगता है तब वह साध्य को प्राप्त करने के लिए पूर्णशक्ति, प्रसन्नचित्त और दृढ़ता से प्रयत्न करता है तथा उसमें अधिकाधिक प्रगति करता रहता है । इसी हेतु वह शुद्ध चारित्र को प्राप्त कर उसमें क्रमशः आगे बढ़ता जाता है । तत्पश्चात् सर्वज्ञ बनकर, अन्त में ज्ञानयोग से भवोपग्राही चार अघाती कर्मों का क्षय कर शाश्वत मोक्ष को प्राप्त * पृष्ठ ६२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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