Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 986
________________ प्रस्ताव ६ : हरि राजा और धनशेखर धनशेखर भी मित्र दोषों के कारण पीड़ित हो रहा है ? इसका उत्तर यह है कि ऐसे अन्तरंग मित्रों के कारण ही धनशेखर इस प्रकार की निकृष्ट चेष्टा करता है । [६५ε-६६४] शंका का निराकरण हरि राजा - भगवन् ! इस विषय में अब मेरा संशय दूर हुआ, किन्तु एक संदेह और शेष रह गया है, कृपया उसे भी दूर कीजिये | आपने कर्मपरिणाम महाराजा के छः पुत्र बतलाये, उनके विदा होने के बाद क्या होता है ? क्या इन छ: के पश्चात् दूसरे राज्य नहीं होते या पुनः पुनः यही राज्य होते हैं ? [६६५–६६७] उत्तमसूरि - इस संसार में भिन्न-भिन्न रूपों में चर-अचर चितने भी प्राणी हैं, वे सभी वस्तुत: कर्मपरिणाम महाराजा के ही पुत्र हैं और उनका समावेश निःसन्देह उपरोक्त छः प्रकार के पुत्रों में हो जाता है । उनके चले जाने पर उनके जैसे अन्य पुत्रों को वह राज्य सौंप दिया जाता है । नये आने वाले पुत्रों के नाम भी उपरोक्त निकृष्ट, अधम आदि छः प्रकार के होते हैं और उनके नाम-गुरण के अनुसार ही वे क्रमशः सुखासुख के कारण उत्पन्न कर सुख-दुःख भोगते हैं । * राजेन्द्र ! अन्य की बात छोड़िये । देखिये, मैं स्वयं भी कर्मपरिणाम राजा का एक पुत्र हूँ । यह आपके ध्यान में होगा कि कर्मपरिणाम ने अपने उत्तम नामक पुत्र को एक वर्ष के लिये राज्य दिया था । उस उत्तम ने सिद्धान्त गुरु द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर वैराग्य श्रौर अभ्यास के साथ चलकर, पूर्व- वर्णित कर्त्तव्यों का पालन करते हुए अन्तरंग राज्य में प्रवेश किया था । उसने राज्य में प्रवेश कर महामोहादि शत्रुवर्ग का नाश किया था तथा चारित्रधर्मराज की सेना का पोषण / संवर्धन किया था । वह मैं ही हूँ । उत्तम प्रकार के राज्य का उपभोग करते हुए ही मैं मेरे सहायक इन साधुओं के साथ यहाँ आ पहुँचा हूँ । पाँचवें भूपति उत्तम राजा की वार्ता में उसके जिन गुणों सुखों, विभूतियों और चेष्टाओं का वर्णन किया था, हे राजन् ! वे सभी गुण, सभी सुख, विभूतियाँ और चेष्टायें इस समय मुझ में निःसन्देह रूप से विद्यमान हैं, अन्तनिहित हैं । इस समय मैं अन्तरंग राज्य कर रहा हूँ और भक्तिभाव से विनम्र देवता बारम्बार "मैं गुरणगरणों का भण्डार हूँ" कहते हुए धन्यतापूर्वक मेरी स्तुति कर रहे हैं। मुझे इस समय ऐसा स्वसंवेदनसिद्ध श्रात्मिक सुख का अनुभव हो रहा है जो इस राज्य का पालन करते हुए ही प्राप्त होता है । उस सुख का विवेचन वर्णनातीत है । मेरे पास आत्मिक रत्नों का भण्डार है और मेरी अन्तरंग चतुरंगी सेना संख्यातीत ( इतनी बड़ी ) है कि उसकी गिनती भी नहीं हो सकती । सिद्धान्त महात्मा ने उत्तम राजा की वार्ता में जिन चेष्टाओ / कर्त्तव्यों का वर्णन किया है, मेरी चेष्टायें, अनुष्ठान और प्रवृत्ति भी अभी वैसी ही है । जैसे मैं कर्मपरिणाम का उत्तम नामक पुत्र विद्यमान हूँ वैसे ही निकृष्ट आदि पुत्र भी इस संसार में निःसंशय रूप से जन्मे हुए * पृष्ठ ६०५ २०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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