Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ६ : हरि राजा और धनशेखर
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कल्याण-संदोहमयी इन अद्भुत विभूतियों/समृद्धियों का वर्णन वाणी द्वारा करना अशक्य है। [६२८-६३६]]
त्रिभुवनस्थ समग्र प्राणियों के नेत्रों को तृप्त करने वाले, सब को आनन्द देने वाले, महासुखदायी, निवृत्तिनगरी का मार्ग बतलाने वाले और अनेक लोगों को निर्वत्ति नगरी पहचाने वाले ये वरिष्ठ महाराज ही हैं। [६४०]
हे देव ! इस प्रकार का राज्य करते हुए अन्त में महाप्रतापी वरिष्ठ राजा स्वयं भी निर्वत्ति नगरी में पहुंच गये। पूर्व प्रकरण में वरिणत उत्तम राजा ने जिस प्रकार शत्रुओं का नाश किया उसी प्रकार इन्होंने भी अपने समस्त शत्रुओं को नष्ट कर दिया, ऐसा निःसंशय समझ लें। [६४१-६४२]
हे स्वामिन् ! परमयोगिनी दृष्टिदेवी ने भी अपनी शक्ति का भरपूर उपयोग इन वरिष्ठ राजा पर किया, पर उसका सब प्रयत्न व्यर्थ गया, वह इनका कुछ भी बिगाड़ न सकी। वरिष्ठ राजा ने उसे सत्वहीन बनाकर उसको उसके साथियों से अलग कर दिया, जिससे वह मढ और शक्तिहीन होकर अन्त में नष्ट हो गई । इस प्रकार वरिष्ठ महाराज सर्व प्रकार से कृत-कृत्य होकर, बाधा-पीड़ा रहित होकर, नित्य शांत, सम्पूर्ण आनन्द में मग्न होकर सदाकाल के लिये निवृत्ति नगरी में निजगुणों में रमरण करते हुए विराजित हैं। [६४३-६४५]
वितर्क अप्रतिबद्ध से कह रहा है कि, आपने उपरोक्त छः राज्यों का सूक्ष्मता से अवलोकन कर, ब्योरेवार विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करने की जो आज्ञा प्रदान की थी, वह अब पूर्ण हुई । मैंने छहों राजाओं का वर्णन आपके समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। [६४६]
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१७. हरि राजा और धनशेखर
वितर्क से छः राजाओं के विषय में सुनकर अप्रबुद्ध अपने मन में सोचने लगा कि, अहो ! महात्मा सिद्धान्त ने मुझे पहले जो बात बतलाई थी वह पूर्णरूपेण सत्य सिद्ध हो रही है । उनकी कथित वाणी में तनिक भी अन्तर या विरोध दृष्टिगत नहीं होता। सिद्धान्त महात्मा ने पूर्व में कहा था कि सुख और दुःख दोनों का कारण अन्तरंग राज्य है, वह ठीक ही है। राज्य तो एक ही है, पर पात्र-विशेष के कारण जैसा उसका पालन होता है वैसा ही वह सुख और दुःख का कारण होता
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