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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
उपसंहार ये घ्राणमायानृतचौर्यरक्ता, भवन्ति पापिष्ठतया मनुष्याः । इहैव जन्मन्यतुलानि तेषां, भवन्ति दुःखानि विडम्बनाश्च ॥ [७३१] तथा परत्रापि च तेष रक्ताः, पतन्ति संसारमहासमुद्रे । अनन्तदुःखौघचितेऽतिरौद्रे, तेषां ततश्चोत्तरणं कुतस्त्यम् ? ।। [७३२]
जो प्राणी पापप्रिय होते हैं, वे घ्राणेन्द्रिय, माया/कपट और चोरी में आसक्त होकर इस भव में भी अनेक अतुलनीय दुःख और विडम्बनाएं प्राप्त करते हैं और परभव में भी पापों से परिवेष्टित होने से अनन्त दुःखसमूह से परिपूर्ण महाभयंकर संसार-समुद्र में गहरे डूब जाते हैं । ऐसी अवस्था में वे इस महाभयंकर समुद्र को तैर कर कैसे पार उतर सकते हैं ?
जैनेन्द्रादेशतो वः कथितमिदमहो लेशतः किञ्चिदत्र, प्रस्तावे भावसारं कृतविमलधियो गाढमध्यस्थचित्ताः। एतद्विज्ञाय भो ! भो ! मनुजगतिगता ज्ञाततत्त्वा मनुष्याः,
स्तेयं मायां च हित्वा विरह्यत यतो घ्राणलाम्पट्यमुच्चैः । [७३३]
इस प्रस्ताव में जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित उपदेश को जो कुछ थोड़ा बहुत कथारूप में गूंथा है, उसके प्रान्तरिक भाव को/गूढ रहस्य को समझने के लिये अपनी बुद्धि को निर्मल कर, अपने चित्त को पूर्णरूपेण मध्यस्थ कर कथा के प्राशय को समझने का प्रयत्न करें। हे मनुष्य गति में विद्यमान मनुष्यों! यदि आप तत्त्वज्ञ हैं, अर्थात् आपने इस कथा के रहस्य को सम्यक् प्रकार से समझा है तो आप स्तेय/ चोरी, माया और घ्राणेन्द्रिय लम्पटता का सर्वथा त्याग करदें। [७३३]
इति उपमिति-भव-प्रपंच कथा में माया, चोरी और घ्राणेन्द्रिय आसक्ति के फल को प्रकट करने वाला पाँचवां प्रस्ताव समाप्त हुआ।
परस्परोपाही जीवानाम
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