Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
३. हरिकुमार की विनोद गोष्ठी
[ मेरे साथ आये हुए सभी व्यापारी विदा हो गये, अपना बिक्री-खरीद का व्यापार पूरा कर अपने देश वापस लौट गये । पर, सागर मित्र की प्रेरणा से मैं रत्नों के ढेर एकत्रित करने के लिये रत्न द्वीप में ही रह गया और वहीं अपना व्यापार प्रारम्भ कर दिया। मेरा सम्पूर्ण समय सागर की प्रेरणा से धनोपार्जन के उपायों को सोचने में और उन्हें क्रियान्वित करने की योजना बनाने में व्यतीत हो जाता था। हे अगृहीतसंकेता ! उसके पश्चात् एक और घटना घटित हई जिसे सुन ।] * हरिकुमार का पूर्व-वृत्तान्त
एक दिन एक बढ़िया मेरे पास आई और कहने लगी ... 'पुत्र ! मुझे तुम्हारे साथ कुछ बात करनी है।' मैंने जब उसे अपनी बात सुनाने को कहा, तब वह बोली-'वत्स ! तुझे यह तो पता ही है कि आनन्दपुर में केसरी नामक राजा राज्य करता है। उस राजा के दो रानियां हैं - एक जयसुन्दरी और दूसरी कमलसुन्दरी। कमलसुन्दरी के साथ क्या घटना घटित हुई, यह बताती हूँ।
इस केसरी राजा की राज्य पर अत्यधिक आसक्ति थी और उसे सदा यह भय बना रहता था कि यदि उसके पुत्र होगा तो वह उसे मार कर स्वयं राजा बन जायेगा, अतः जैसे ही कोई पुत्र जन्म लेता वह उसे मार देता। इस प्रकार उसने तुरन्त के जन्मे कुछ बच्चों को तो स्वर्गधाम पहुँचा ही दिया। कमलसुन्दरी को इस बात का पता लग गया। एक बार वह फिर गर्भवती हुई । गर्भ में रहे हुए बालक पर माता का स्वाभाविक स्नेह रहता ही है, इसीलिये एक दिन कमलसुन्दरी पुत्र-मोह से मुझे (वसुमती) साथ लेकर अन्धकारमयी रात्रि में राजमहल से भाग निकली । आगे जाकर एक विशाल और भयंकर जंगल आया। कमलसुन्दरी बहुत सुकोमल थी और उसे कभी पैदल चलने का काम नहीं पड़ा था, इसलिये उसे बहुत दुःख उठाना पड़ा । जब पौ फटने का समय हुया तब रानी के नितम्ब विकसित होने लगे और नाभि (सुण्डी) में दर्द उठने लगा। पेट में दारुण शूल उठने से उसके चरण आगे बढ़ने से रुक गये । उसका पूरा शरीर टूटने लगा और हृदय जोर से धड़कने लगा। आँखें मिच गईं और उबासी पर उबासी आने लगी । तब रानी ने कहा-सखि वसुमति ! अब तो मैं एक कदम भी नहीं चल सकती। मेरे शरीर में बहुत अधिक पीड़ा हो रही है और मेरा समस्त शरीर अत्यधिक व्यथित हो गया है। उस समय मैंने विचार किया कि इसको एकाएक क्या हो गया है ? तभी मुझे
* पृष्ठ ५५७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org