Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ६ : धनशेखर की निष्फलता
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फिर मुझे एक महात्मा पुरुष मिले । उनके पास से मैंने रसकूपिका कल्प की विधि सीखी । रससिद्धि की पुस्तक को लेकर मैं रात में रसकूपिका वाली पहाड़ की गुफा में गया और उसमें से रस निकालने का जैसे ही प्रयत्न करने लगा वैसे ही एक सिंह अपनी मोटी पूंछ उछालता और भयंकर गर्जन करता वहाँ पहुँच गया। मैं भयभीत होकर वहाँ से भागा* और बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचा पाया।
[२६३-३०६] हे अगहीतसंकेता ! तुझे क्या-क्या बतलाऊं ? उस समय मैंने धन प्राप्त करने की इच्छा से न मालूम कौन-कौन से पाप-कर्म नहीं किये । अनेक व्यापार किये पर पुण्योदय मेरे साथ नहीं था इसलिये जो भी काम करता वह उलटा ही पड़ता और प्रत्येक काम में मुझे लाभ के बदले कठिनाइयों में ही फंसना पड़ता । पुण्योदय के बिना मेरी ऐसी दशा हुई कि बहुत जोर की भूख लगने पर मैंने भीख भी मांगी तब भी मुझे भीख नहीं मिली। मेरी ऐसी दुर्दशा हो गई। जब मुझे इस प्रकार प्रत्येक काम में असफलता ही हाथ लगने लगी तब मैं बहुत ही निराश हो गया और मैंने यह निश्चय कर लिया कि अब मैं कुछ भी काम नहीं करूंगा। इस प्रकार मैं हाथ पर हाथ रखकर पैर पसार कर बैठ गया। [३०७-३०६]
सागर का उपदेश : अनुसरण और निष्फलता
जब मैं इस प्रकार निराश होकर बैठ गया तब मेरे अन्तरंग मित्र सागर ने फिर मुझे प्रेरित किया और मुझे उत्साहित करने के लिए हितोपदेश देने लगा-- प्रिय धनशेखर ! मैं तुझे तेरे लाभ की बात कहता हूँ, तू ध्यानपूर्वक सुन
न विषादपरैरर्थः, प्राप्यते धनशेखरः ।
अविषादः श्रियो मूलं, यतो धीराः प्रचक्षते ।।३११।। _हे धनशेखर ! जो प्राणी निराश हो जाते हैं उन्हें कभी धन की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसीलिए विद्वान् मनुष्य कहते हैं कि किसी भी काम में निराश नहीं होना चाहिये, यही धन एकत्रित करने का मूल मंत्र है ।
इसलिये पुरुषार्थी मनुष्य को निराशा छोड़कर, भाग्य के विपरीत होने पर भी परिश्रम कर धनोपार्जन करने का प्रयत्न करना चाहिये। यही सच्चा पौरुष है और इसी से लाभ मिल सकता है । आलसी बनकर बैठे रहने से या अन्य किसी प्रकार से लाभ प्राप्त नहीं हो सकता । तुझे कितना कहूँ, धन तो अवश्य प्राप्त करना चाहिये । वह चाहे झूठ बोलकर, दूसरे के धन को चुराकर, मित्र-द्रोह कर, अपनी सगी माता को मार कर, पिता का खून कर, सगे भाई का घात कर, सगी बहिन का नाश कर, स्वजन-सम्बन्धियों का विनाश कर और समस्त प्रकार के पापाचरण
* पृष्ठ ५७८ Jain Education International
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