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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
यह सुनकर महामोह ने विमध्यम को उसके अन्तरंग राज्य में प्रवेश करने से रोकने की आज्ञा दे दी। [४६५-५०६] विमध्यम का राज्य
आज्ञा मिलते ही मोह राजा के तस्कर सैनिकों ने दष्टिदेवी के सहयोग से विमध्यम को अपने अन्तरंग राज्य में प्रवेश करने से रोक दिया और उसके राज्य पर अपना आधिपत्य जमा लिया । पर, इस बार चारित्रधर्मराज की सेना को अधिक पीडित नहीं किया और किचित उस सैन्य की अपेक्षा भी रखी। परिणामस्वरूप वह राज्य से बहिर्भूत होने पर भी प्रात्मीय राज्य और सेना का भी कभीकभी मान-सन्मान के साथ पालन-पोषण करने लगा । विमध्यम ने रात-दिन के समय को तीन भागों में बांट दिया था । वह समयोचित कुछ समय धर्म-कार्य करता, कुछ समय धनोपार्जन करता और कुछ समय विषय सेवन में बिताता । वह धर्म, अर्थ और काम तीनों में प्रवृत्ति करता था जिससे चारित्रधर्मराज आदि भी संतुष्ट थे और गत वर्षों की तरह शोक-मग्न भी नहीं थे। विमध्यम राजा की तुलना त्रिवर्ग (अर्थ, काम, धर्म) साधक सदाचारी ब्राह्मण या प्रजापालक राजा से की जा सकती है । इस पद्धति से वह विमध्यम लोगों में भाग्यशाली और पुण्यवान के रूप में प्रशंसित भी हुआ। विमध्यम का पिता कर्मपरिणाम महाराजा भी अपने पुत्र की राज्यपालन पद्धति से कुछ प्रसन्न हुमा । फलस्वरूप उसने कभी विमध्यम को सुख पूर्ण संयोग वाले पशुसंस्थान में भेजा तो कभी सुख-साधन युक्त मानवावास में और कभी सुख से भरपूर विबुधालय (देवलोक) में भी भेजा था, ऐसा मैंने सुना । [५०७-५१६]
१४. मध्यम-राज्य
विमध्यम का राज्य समाप्त होने पर चौथे वर्ष मध्यम नामक चौथे पुत्र का राज्य प्रारम्भ हुमा । गत वर्षों की भांति इस बार भी उसकी नियुक्ति की घोषणा पटह बजाकर की गई । महामोह और उसके मंत्री के बीच भी गत वर्षों की ही तरह इस नये राजा के विषय में विचार-विमर्श हुआ। महामोहराज द्वारा मध्यम के गुण और स्वरूप के सम्बन्ध में पूछने पर विषयाभिलाष मंत्री ने कहा :----
महाराज ! यह मध्यम राजा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में पूरे समय भाव-पूर्वक प्रयत्न करने वाला है। वह इन चार पुरुषार्थों
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