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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
प्रदेश में होने से * उन गणों का संचालन करने से वे गणधर कहलाये । वरिष्ठ राजा स्वयं सिद्धान्त के ज्ञाता थे, परन्तु परोपकार की दृष्टि से उन्होंने अपने गणधरों को सिद्धान्त का उपदेश दिया। राजा की आज्ञा से सिद्धान्त को प्रादरपूर्वक प्राप्त कर गणधर सिद्धान्त के शरीर को सुन्दर बनाते हैं, परिष्कार करते हैं। पश्चात् ये गणधर सम्यक् प्रकार से निर्णय और संस्कार कर सिद्धान्त के अंग और उपांगों की स्थापना करते हैं । यद्यपि परमार्थ की दृष्टि से तो सिद्धान्त अजर-अमर ही हैं, फिर भी लोक में तो यही प्रसिद्ध हया कि इसकी रचना वरिष्ठ राजा ने की है। राज्य-साधन में वरिष्ठ का कोई उपदेष्टा नहीं था। उसने तो स्वयं के ज्ञान-बल से ही राज्य-साधन किया था। वह वरिष्ठ भूपति किसी के सहयोग की अपेक्षा नहीं रखता था, महाभाग्यशाली था, स्वकीय शक्ति-पराक्रम से युक्त था, परापेक्षी नहीं था और स्वयं ज्ञानी था। [५६७-६०७] वरिष्ठ राजा का स्वरूप
वरिष्ठ राजा के सम्बन्ध में जो लोकवार्ता चल रही थी उसी को सुनकर मैं जान पाया कि कर्मपरिणाम पिता ने वरिष्ठ राजा को कैसा बनाया ? वही मैं आपसे निवेदन करता हूँ।
यह नरेश्वर वरिष्ठ भगवान् सर्वदा परोपकार के लिये आतुर रहते। अपने स्वार्थ को तो उन्होंने तिलांजलि दे रखी थी। वे सर्वदा उचित क्रिया में तत्पर रहते, देव और गुरु का बहुमान रखते और किसी भी प्रकार की दीनता से रहित एवं प्रोजस्वी हृदय वाले थे। वे कार्य प्रारम्भ से लेकर अन्तिम सफलता तक दीर्घ-दृष्टि से देखने वाले, कृतज्ञ, परमैश्वर्य युक्त, किसी पर पूर्व-वैर से शत्रुता न रखने वाले
और धीर-गम्भीर प्राशय वाले थे। वे परीषहों की अवज्ञा करने वाले, उपसर्गों से निर्भय, इन्द्रियसमूह के प्रति निश्चित, महामोहादि शत्रुओं को तृणवत् समझने वाले, चारित्रधर्मराज आदि अपने सैन्यबल पर प्रात्मभाव रखने वाले और सम्पूर्ण लोक का उपकार करने की अत्यधिक अभिलाषा रखने वाले थे।
चोरों को हटाकर वरिष्ठ महाराजा द्वारा अपने राज्य में प्रवेश करते ही लोगों में अत्यन्त आनन्द छा गया। उसी समय उनका राज्य दिव्यराज्य में परिणत हो गया । पश्चात निरंतर आनंदोत्सव से परिपूर्ण राज्य को भोगते हुए महाराजा का बहिरंग ऐश्वर्य कैसा था ? वर्णन करता हूँ, सुनो ! जिनके जगमग करते मुकुट, बाजूबन्द, हार और कुण्डलों से चारों दिशाएँ प्रकाशित होती हैं । ऐसे इन्द्र इन महाराज के पदाति होकर रहते हैं। तीनों लोक के देवता, मनुष्य और असुर महाराज के अनुचर ही हों ऐसा आचरण करते हैं। स्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोक की समस्त समृद्धि इनके चरणों में निवास करती है। फिर भी वे तो सर्व प्रकार से पूर्णतया निःस्पृह हैं। [६०६-६१३]
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