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प्रस्ताव ६ : अधम-राज्य : योगिनी दृष्टिदेवी
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गया था वैसे ही इस समय भी अधम राज्य के संवादों से समस्त साधु-मण्डल शोकग्रस्त हो गया। [४६१-४६२] दष्टिदेवी का प्रभाव
दृष्टिदेवी ने योगबल से सूक्ष्म रूप धारण किया और गुप्त रूप से अधम राजा की आँखों में समा गई । दृष्टि के प्रभाव से अधम राजा स्त्रियों के रूप-सौन्दर्य के निरीक्षण में अधिक लोलुप हो गया और सौन्दर्य अवलोकन के अतिरिक्त संसार में सुख का अन्य कोई कारण नहीं है, ऐसा वह मानने लगा। स्त्रियों के कटाक्ष, तिरछी नजर, इंगितादि चेष्टायें, अंगोपांग, हाव-भाव, लावण्य, हास्य, लीला, क्रीडा प्रादि को अांखें फाड़-फाड़ कर देखने में ही उसे आनन्द आने लगा । मूर्ख अधम राजा स्त्रियों के नेत्रों को नीलकमल, मुख को चन्द्रमा,* स्तनों को स्वर्णक्लश और प्रत्येक अंगोपांग में सौन्दर्य की कल्पना करने लगा। वह स्त्रियों के विलास, लास्य, चपलता, नखरे, हाव-भाव देखने में रस लेने लगा और रूपवती ललनाओं का नाटक देखकर प्रसन्न होने लगा । सुन्दर चित्र, आकर्षक वस्तुएं और विशेषकर सुन्दर स्त्रियों को देखकर वह अति हर्षित होता । सौन्दर्य-दर्शन के ऐसे प्रसंगों पर वह सोचता था-'अहो ! मुझे तो अतिशय सुख है, मुझे तो यहाँ स्वर्ग मिल गया है ! मैं पुण्यशाली हूं कि मुझे निरन्तर आश्चर्योत्पादक रूप और सौन्दर्य के दर्शन प्राप्त होते हैं।' इस प्रकार वह अधम रात-दिन सौन्दर्य-दर्शन में इतना लुब्ध हो गया कि सोच ही न सका कि वह कौन है ? कहाँ से आया है ? और क्या कर रहा है ? [४६३-४७०]
दृष्टिदेवी के साथ ही उसके भाई-बहिन स्पर्शन आदि, स्वयं महामोह राजा और उसकी सेना भी अपना-अपना काम कर रही थी । परिणामस्वरूप अधम राजा में जो थोड़ा बहुत ज्ञान था वह भी नष्ट हो गया। यों अधम राजा धन और विषय सुख में तल्लीन होकर बाह य प्रदेश में ही भटकता रहा। सारे समय रूप-दर्शन, धन बटोरना और इन्द्रियों के विषयों को भोगने में ही उसने सुख और कर्त्तव्य की इतिश्री मान ली। अपने राज्य, अपनी सेना, अपनी अखूट सम्पत्ति और अपने स्वयं के राजा होने का तो उसे भान ही न रहा । दृष्टिदेवी, महामोह राजा और उसकी सेना को वह अपना हितेच्छू और मित्र मानने लगा और उन्हीं का पूरा विश्वास करने लगा। इस प्रकार अधम को अपने विश्वास में लेकर तस्कर सैन्य ने धीमे-धीमे उसका समस्त राज्य हड़प लिया और अधम को अपना वशंवद बनाकर, उसके समस्त समर्थकों को मार-मार कर भगा दिया। [४७१-४७५]
इस प्रकार अधम राजा अपने राज्य से भ्रष्ट हुआ, अपने सच्चे हितैषियों से रहित हुआ और अपने शत्रुओं से घिरकर हतपराक्रम हुमा । दूसरों के अधीनस्थ रहने में वह सुख मानने लगा। शब्दादि इन्द्रिय विषय जो दुःख रूप हैं और दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं, उसे अज्ञानवश प्राणी सुख रूप मानता है । अर्थात् वास्तविक * पृष्ठ ५६१
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