Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ६ : निकृष्ट-राज्य
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निकृष्ट की राज्य प्राप्ति के समाचारों से चारित्रधर्मराज के सभी प्रदेशों के लोग आनन्द, हर्ष, उत्सव रहित होकर शोकमग्न हो गये एवं पूर्णतः दुःखी हो गये । [४०६-४१३]
अन्तरंग राज्य पर मोह राजा का श्राधिपत्य
एक ही घटना से एक तरफ मोहराज की सेना में आनन्द फैल गया तो दूसरी तरफ चारित्रधर्मराज की सेना में शोक फैल गया, यह देख कर मुझे ऐसे निकृष्ट राजा और उसके गुणों को देखने का कुतूहल पैदा हुआ । मैंने अपने मन में सोचा कि जिसके ऐसे गुण हैं वह निकृष्ट राजा कैसा होगा ? मुझे अवश्य ही देखना चाहिये | इन्हीं विचार-तरंगों में मैंने निर्णय किया कि जब वह अपना राज्य ग्रहण करने राज्य में प्रवेश करेगा तब उसे देखूंगा । यही विचार कर मैं उसके राज्य में जाकर उसे देखने के लिये उसके आने की प्रतीक्षा करने लगा, किन्तु निकृष्ट राजा जब अपने राज्य में प्रवेश करने के लिये प्राया तो महामोह आदि तस्करों ने उसे राज्य में प्रवेश ही नहीं करने दिया । इसके विपरीत महामोह आदि ने निकृष्ट राजा की सारी भूमि पर अधिकार कर लिया और चारित्रधर्मराज की सेना को घेरकर, नाश कर उस पर भी विजय प्राप्त कर ली तथा निकृष्ट राजा को उसके राज्य के बाहर धकेल दिया । हे देव ! इस प्रकार महामोहराज आदि तस्करों ने निकृष्ट राजा को बाहर निकाल कर, अन्तरंग राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया । [ ४१४ - ४१८ ]
बहिरंग राज्य का निरीक्षण
अन्तरंग राज्य की यह उथल-पुथल एवं दुर्दशा देखकर, हे देव ! बहिरंग प्रदेश का अवलोकन करने की अभिलाषा से मैं बाह्य प्रदेश में आ गया । हे देव ! वहाँ मैंने देखा कि अपने राज्य से भ्रष्ट निकृष्ट राजा यहाँ अत्यन्त दु:खी और arat स्थिति में है | वह नराधम पाप कर्मों में प्रासक्त, अत्यन्त दीन, अत्यन्त क्रूर, लोगों का निन्दापात्र, अपने पुरुषार्थ से भ्रष्ट और अन्य पर आधारित नपुंसक जैसा दिख रहा था । उसके शरीर पर फफोले और घाव दिख रहे थे, पूरा शरीर मैल से भरा हुआ था, पाप के ढेर जैसा लग रहा था और दूसरों का आज्ञापालक, परवश, दीन-दुःखी, लाचार, दयापात्र, नौकर जैसा लग रहा था । अपने राज्य से भ्रष्ट होकर वह निकृष्ट लोगों की दृष्टि में भी दुर्भागी लग रहा था । यह तो सब ही जानते हैं कि "जो व्यक्ति अपने ही घर में पराभव प्राप्त करता है वह बाहर तो पराभूत होता ही है ।" अब वह निकृष्ट घास या लकड़ी बेचकर हल चलाकर, पशुपक्षियों को मारकर, पत्रवाहक बनकर और अनेक प्रकार के निन्दनीय कार्य कर तथा सैकड़ों प्रकार के आक्रोश सहन कर बड़ी कठिनाई से अपना पेट भरता था । जो अत्यधिक दुःखी हो, अत्यन्त पापी हो क्रूर कर्म करने वाला हो, ढेढ चमार जैसा हो वैसा ही वह राज्य भ्रष्ट होकर ढेढ चमार जैसा लग रहा था । फिर भी उसे महामोह आदि
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