Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
प्रस्ताव ६ : हरिकुमार की विनोद गोष्ठी
१३७
पद्मकेसर-हाँ, अच्छी तरह देखा है।
विलास-मित्र पद्मकेसर ! इस चित्रित कन्या ने क्या विशेष कार्य किया है ? उसका वर्णन तो तू हमारे समक्ष कर ।
पद्मकेसर -देख भाई ! इस कुमार का मन कामदेव से आतुर अन्य किसी भी स्त्री से आज तक दुर्गम ही रहा, जीता नहीं गया। जिस मन का उल्लंघन आकाश में चलने वाली विद्याधरी भी नहीं कर सकी, जिस मन को किन्नरियां भी हरण नहीं कर सकी, जिस मन को देवांगनाएं भी साध्य नहीं कर सकी, जिसे गंधर्व जाति की स्त्रियां भी नहीं जीत सकी, जिस मन में सर्वदा सत्वगुण ही प्रधान रूप से प्रवर्तित होता हो, जो मन राजसी और तामसी विचारों का निरन्तर तिरस्कार करता हो, ऐसे महावीर्यवान कुमार के मन को इस चित्रलिखित कन्या ने चित्र में रह कर ही जीत लिया है, यह वास्तव में आश्चर्यजनक बात ही है। यह वास्तविकता केवल मैंने ही देखी हो ऐसी बात नहीं, आप सबने भी अभी-अभी स्पष्ट रूप से यह बात देखी है ।
विभ्रम--भाई ! यह तो सचमुच आश्चर्य हुआ, ऐसा कह सकते हैं। पर, इसमें चित्र ने क्या किया ?
पद्मकेसर - अरे मूर्ख शिरोमणि ! चित्र शब्द के दो अर्थ होते हैं, चित्र याने छवि, चित्र याने आश्चर्य । यह चित्र वास्तविक चित्र ही है। अर्थात् यह छवि प्राश्चर्यजनक है।
कपोल-आपने कैसे जाना कि चित्रलिखित कन्या ने कुमार के मन को जीत लिया है ? क्या आपके पास इसका कोई प्रमाण है ?
पद्मकेसर-वाह रे मूर्तों के सरदार ! क्या तू इतना भी नहीं देख सकता? देख, मन रूपी सरोवर जब तक भीतर से अत्यधिक क्षुब्ध न हुआ हो तब तक इस प्रकार के स्पष्ट हुंकार आदि नहीं निकलते और न अनेक प्रकार की मन की तरंगे ही उत्पन्न होती हैं। इस पर भी यदि तुझे मेरे कथन पर विश्वास न हो तो तू स्वयं कुमार को पूछ देख, तुझे वास्तविकता का पता लग जायगा और सारी बात स्पष्ट हो जायेगी।
हरिकुमार-मित्र पद्मकेसर ! अब बिना प्रसंग की इस बेकार की बातचीत को बन्द करो। कुछ चातुर्य-पूर्ण आनन्ददायक प्रश्नोत्तर चलाओ, जिससे कि कुछ अानन्द की प्राप्ति हो ।
पद्मकेसर ने हंसते हुए उत्तर दिया-जैसी कुमार की आज्ञा। फिर मित्रों में निम्नलिखित विद्वद्गोष्ठी/प्रश्नोत्तरी चलीप्रश्नोत्तर गोष्ठी पद्मकेसर ने प्रश्न किया
पश्यन् विस्फारिताक्षोऽपि, वाचमाकर्णयन्नपि । कस्य को याति नो तृप्ति, किंच संसारकारणम् ।।१२५।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org