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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
से मुक्त होकर चित्रलिखित कन्या के लक्ष्य पर अपना ध्यान लगाते हम सभी ने देखा । [१३४]
उस समय मैंने (धनशेखर) कुमार से पूछा-कुमार ! क्या बात है ?
कुमार ने उत्तर में कहा- भाई धनशेखर ! कल रात में मेरा सिर दर्द कर रहा था जिससे नींद नहीं आई। उसके असर से अभी भी मेरा सिर दर्द कर रहा है और चक्कर आ रहे हैं ।* अतः ये मन्मथ आदि मित्र यदि जाना चाहें तो जायें, यदि रहना चाहें तो यहाँ घूमें फिरें। तू अकेला मेरे साथ रह । चल, अपन पास में ही चन्दन लतागृह में चलें ताकि वहाँ मैं थोड़ी देर शान्ति से सो सकू ।
__कुमार की इस इच्छा को जानकर और संकेत को स्वीकार कर मन्मथ आदि सभी मित्र वहाँ से विदा हुए । केवल मैं कुमार के साथ रहा।
४. हरिकुमार की काम-व्याकुलता : आयुर्वेद
सभी मित्रों के विदा होने पर मैं और कुमार लतामण्डप में प्रविष्ट हुए। ठण्डे सुकोमल पत्तों को एकत्रित कर मैंने एक बिछोना कुमार के लिये बनाया। कुमार उस पर बैठे । पर, उस ठण्डे बिछोने पर भी कुमार इस तरह तड़फने लगे, जैसे तपती रेत में पड़ी हुई मछली तड़फती हो। उन्हें तनिक भी शान्ति प्राप्त नहीं हुई । फिर मैंने उनके बैठने के लिये कोमल आसन का प्रबन्ध किया और कुमार को उस आसन पर बिठाया । जैसे सूली पर चढ़ाये हुए चोर को सुख नहीं मिलता वैसे ही कुमार को इस आसन पर भी चैन नहीं मिला। फिर वह मेरे कन्धे से लगकर इधर-उधर झूमने लगे। फिर भी उनके हृदय का अन्तस्ताप लेशमात्र भी कम नहीं हुआ।
काम का प्राबल्य
फिर कुमार कभी सोये, कभी बैठे, कभी खड़े हये, कभी इधर-उधर घूमे, पर जैसे नरकगति के दुःखपीड़ित जीव को नारकी में सूख नहीं मिलता वैसे ही उन्हें भी सुख या शान्ति नहीं मिली। जितने भी सुख-शान्ति पहुँचाने के उपाय हो सकते थे वे सब मैंने प्रयुक्त किये, पर उनसे कुमार की वेदना उलटी बढ़ती ही गई। इस प्रकार कामाग्नि से जलते हुए कुमार पर्याप्त समय तक उस शीतल लतागह में रहे परन्तु उनकी कामाग्नि का ताप शान्त नहीं हुआ। [१३५-१३६]
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