Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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२. धन की खोज में
[हे अगृहीतसंकेता ! इस प्रकार मैं अपने माता-पिता के साथ उपरोक्त बातचीत कर, पहने हुए कपड़ों से ही, बिना एक पाई भी साथ में लिए, प्रानन्द नगर से निकल पड़ा। मेरे मन में स्व-पराक्रम से पूर्वजों के धन की सहायता के बिना ही धनार्जन करने की इच्छा थी । इसी विचार से मैं आगे चल पड़ा ।]
वहाँ से धन की खोज में मैं दक्षिण दिशा की ओर समुद्र के किनारे-किनारे बढ़ा। आगे जाकर समुद्र के तट पर एक जयपुर नामक सुन्दर नगर में मैं पहुँच गया । उस नगर के बाहर एक विशाल उद्यान था, जिसमें जाकर मैं विश्राम करने लगा और सोचने लगा :
__ अब मुझे किसी भी प्रकार अगणित धन एकत्रित करना ही चाहिये, तो क्या मैं अति चपल लहरों से तरंगित एवं क्षुभित समुद्र को लांघ कर धन की खान रत्नद्वीप जाऊं? अथवा रणक्षेत्र में प्रबल पराक्रमी वैभवसम्पन्न राजाओं को पराजित कर, मार कर उनकी लक्ष्मी छीन ल ? उनसे धन छीनना कोई बुरी बात तो नहीं है, उस धन पर उनका अधिकार ही क्या है ? अथवा धन प्राप्त करने का एक अन्य उपाय भी है, क्या मैं चण्डिका देवी की आराधना कर, उसे अपनी प्रचण्ड भुजानों के मांस और रुधिर से तृप्त कर, उसके प्रसन्न होने पर उससे धन की याचना करू ? अथवा अन्य सब काम छोड़, रात-दिन एक कर रोहणाचल पर्वत को ही पाताल तक खोद दूं, ताकि उसकी जड़ में से मुझे विपुल धन प्राप्त हो जाय । या पर्वत की गुफा में जाकर रसकूपिका में से रस भर लाऊँ, जिससे उस रस के संयोग से धातुवाद के बल पर यथेच्छ स्वर्ण का निर्माण कर सकू। [४६-५३]
मेरे मित्र सागर (लोभ) के प्रभाव से मैं वहाँ बैठा-बैठा संकल्प-विकल्प में डूबा हुआ धन प्राप्ति के अनेक मनोरथ बांधने लगा । मैं इस प्रकार के अस्त-व्यस्त विचारों में गोते लगा रहा था कि, हे भद्रे ! एकाएक मेरी दृष्टि मेरे सन्मुख स्थित केसू के वृक्ष पर पड़ी । एक अन्य आश्चर्य यह था कि उस वृक्ष का एक पतला अंकुर वृक्ष की शाखा से निकल कर नीचे भूमि की गहराई तक चला गया था। [५४५५] किंशुक वृक्ष और उसकी शाखा को देखते ही कुछ समय पूर्व ही सीखा हुया धातुवाद (भूस्तर विद्या) याद आ गया । मैंने मन में विचार किया कि इस वृक्ष के नीचे अवश्य ही धन होना चाहिये, क्योंकि भूस्तर विद्या (मेटालर्जी एवं मिनरेलोजी) में बताया गया है कि :
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