Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

Previous | Next

Page 884
________________ प्रस्ताव ५ : विमल की दीक्षा १०३ गच्छ-संचालन के हेतु सूरि पद के योग्य समझकर उसे प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। [६१५-६१७] __ अपनी प्रात्मकथा को समाप्त करते हुए बधसूरि ने धवल राजा से कहाहे राजन् ! आपको प्रतिबोधित करने वही बुधसूरि अपने गच्छ और शिष्यों को छोड़कर अकेला यहाँ पाया है। हे धरानाथ ! जो व्यक्ति आपको कथा सुना रहा है और आप सब सुन रहे हैं वह कथावाचक बुधकुमार नामक व्यक्ति में स्वयं ही हूँ। [६१८-६१६] . २०. विमल की दीक्षा अात्मकथा समाप्त करने के पश्चात् बधसरि ने कहा-हे राजन ! मेरी आत्मकथा जो अभी मैंने सुनाई है, वह जैसे मुझे प्रतिबोधित करने में कारणभूत हुई वैसे ही वह आप सब को प्रबुद्ध करने में समर्थ है। क्योंकि, त्रैलोक्य में जहाँ कहीं मनुष्य विचरण करते हैं वहीं उनके पीछे महामोहादि शत्रु उन्हें उत्पीड़ित करने के लिए भागते-फिरते हैं। महामोह और उसके अधीनस्थ सभी योद्धा अत्यन्त भयंकर हैं और जो भी प्राणी उनके चक्कर में आता है, उसके वे क्षणभर में टुकड़ेटुकड़े कर उसके अस्तित्व का लोप कर देते हैं। हे नरेन्द्र ! उनका निवारण करने के लिए जैनशासन रूपी स्थान ही अत्युत्तम और भयरहित है। जो प्राणी इस तत्त्व-रहस्य को समझते हैं और भय से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें इस निर्भय स्थान में प्रवेश करना चाहिये । हे भूपति ! आपको इस कार्य में पल भर की भी देरी नहीं करनी चाहिए । आप कालकूट विष जैसे भयंकर इन्द्रिय विषयों का त्याग करें और इस दिव्य प्रशम सुखरूपी अमृत का पान करें। [६२०-६२५] बुधसूरि की सारगर्भित वाणी को सुनकर धवल राजा ने मुस्कराते हुए विमलकुमार एवं अन्य सभासदों की तरफ देखा और फिर उन सबको लक्ष्य करके कहा-सभाजनों ! महात्मा बुधसूरि ने जो उपदेश दिया है उसे आप सबने सुना है, क्या आपके हृदय पर उनके वचनों का कुछ असर हुआ है ? यह सुनकर जैसे सूर्य के प्रकाश से कमलवन विकसित हो जाता है वैसे ही बुधसूरि (सूर्य) के प्रताप से समस्त सभाजनों के मुखकमल खिल उठे। सभी ने एक साथ भक्ति पूर्वक हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए कहा देव ! हमने महात्मा के वचन ध्यानपूर्वक सुने हैं और आपकी कृपा से उसके भाव (रहस्य) को भी समझा है। अभी तक हमारे मन अज्ञानान्धकार से घिरे हुए थे, उन्हें महात्मा ने अन्धकार दूर करके प्रकाशमान कर * पृष्ठ ५४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940 941 942 943 944 945 946 947 948 949 950 951 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043 1044 1045 1046 1047 1048 1049 1050 1051 1052 1053 1054 1055 1056 1057 1058 1059 1060 1061 1062 1063 1064 1065 1066 1067 1068 1069 1070 1071 1072 1073 1074 1075 1076 1077 1078 1079 1080 1081 1082 1083 1084 1085 1086 1087 1088 1089 1090 1091 1092 1093 1094 1095 1096 1097 1098 1099 1100 1101 1102 1103 1104 1105 1106 1107 1108 1109 1110 1111 1112 1113 1114 1115 1116 1117 1118 1119 1120 1121 1122 1123 1124 1125 1126 1127 1128 1129 1130 1131 1132 1133 1134 1135 1136 1137 1138 1139 1140 1141 1142 1143 1144 1145 1146 1147 1148 1149 1150 1151 1152 1153 1154 1155 1156 1157 1158 1159 1160 1161 1162 1163 1164 1165 1166 1167 1168 1169 1170 1171 1172 1173 1174 1175 1176 1177 1178 1179 1180 1181 1182 1183 1184 1185 1186 1187 1188 1189 1190 1191 1192 1193 1194 1195 1196 1197 1198 1199 1200 1201 1202 1203 1204 1205 1206 1207 1208 1209 1210 1211 1212 1213 1214 1215 1216 1217 1218 1219 1220 1221 1222