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प्रस्ताव ५ : वामदेव का ग्रन्त एवं भव-भ्रमरण
भटका होऊँ । बहुलिका ( माया ) के सम्पर्क से मैंने बहुत पाप किये थे इसलिए पंचाक्षपशुसंस्थान में भी मुझे कई बार स्त्रीयोनि में उत्पन्न होकर विविध विडम्बनायें सहन करनी पड़ीं । बहुलिका और स्तेय के संसर्ग से प्रेरित होकर मैं निरन्तर पाप कर्म करता गया और असह्य दु:ख भोगता रहा । हे सुमुखि ! जहाँ-जहाँ मैं गया, वहाँ-वहाँ वे दोनों मेरे साथ ही रहे । [ ६८८-६६४]
प्रज्ञाविशाला की रहस्य- विचारणा
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संसारी जीव की आत्मकथा सुनकर प्रज्ञाविशाला के मन में प्रबल संवेग उत्पन्न हुआ । वह सोचने लगी कि, अहो ! स्तेय मित्र तो अकल्पनीय दुःखदायक है । माया भी असीम भयंकर हैं । यह बेचारा इन दोनों में आसक्त रहा जिससे इसे इतना भटकना पड़ा और भयंकर दुःख उठाने पड़े । अहो ! पहले तो इसने माया के वशीभूत होकर विमलकुमार जैसे महात्मा पुरुष को ठगा, फलस्वरूप वर्धमान नगर में तृरण जैसा तुच्छ बना । फिर कञ्चनपुर में स्तेय के वश होकर वात्सल्यभाव धारक सरल सेठ के यहाँ चोरी कर उन्हें धोखा दिया, जिससे इसने घोर विडम्बनायें प्राप्त की । वामदेव के भव में इसका सम्पूर्ण जीवन ही माया और स्तेय से घिरा हुआ दिखाई देता है । महाभाग्यशाली बुधसूरि का सम्पर्क और उनके उपदेशों का भी इस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ, इसका कारण भी माया ही है । किसी व्यक्ति के पूर्ण सत्य बोलने पर भी उसकी बात पर विश्वास न हो और उल्टा सत्य बोलने वाले के प्रति तिरस्कार की भावना ही जागृत हो तो समझना चाहिये कि ऐसी विपरीत मति वाला व्यक्ति अवश्य ही माया के वश में है । दूसरे व्यक्ति द्वारा किये गये अपराध का कलंक भी संसारी जीव पर आया, इसका कारण भी माया और स्तेय ही है । वस्तुतः माया और स्तेय अनन्त दोषों के भण्डार हैं, फिर भी दुरात्मा पापी लोग इन दोनों का सम्पर्क नहीं छोड़ते । [ ६६५-७०२ ]
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भव्यपुरुष की दृष्टि में कल्पित वार्ता
संसारी जीव की आत्मकथा सुनकर भव्यपुरुष मन में प्रति विस्मित हुआ । * वह सोचने लगा कि इस तस्कर संसारी जीव की कथा तो बड़ी विचित्र, अतिरंजित, असंभव जैसी और पूर्णरूप से अपूर्ण-सी लगती है । लोगों के प्रतिदिन के व्यवहार से यह असंगत-सी लगती है । यद्यपि इसकी कथा हृदय को आकर्षित करती है तथापि मुझे तो बिलकुल अपरिचित जैसी, गहन भावार्थ वाली और तुरन्त न समझ में आने वाली लगती है । इसके द्वारा वर्णित कथा को सुनकर मन में कई प्रश्न उठते हैं । जैसे - उसका प्रसंव्यवहार नगर में एक कुटुम्बी के रूप में रहना, वहाँ अपनी स्त्री भवितव्यता के साथ अनन्त काल तक रहना, फिर कर्मपरिणाम महाराजा की आज्ञा से वहाँ से बाहर निकलना । फिर एकाक्षपशुसंस्थान और अन्य
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