Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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७. प्रतिबोधकाचार्य
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उस तथाविध नगरी के बाहर मोहविलय नामक उद्यान में अनेक शिष्यों से परिवेष्टित केवलज्ञानादि लक्ष्मी के समुद्र प्रतिबोधक नामक प्राचार्य पधारे । ऐसे महान् श्राचार्य के आगमन की सूचना वनपालक ने महाराजा ऋतुराज को निवेदित की । गुरुदेव के आगमन के समाचार सुनकर महाराजा नगर के लोगों के साथ उन्हें वन्दन करने उद्यान में आये । देवताओं ने आचार्यश्री के बैठने के लिये एक सुन्दर स्वर्ण कमल बनाया था। उस कमल पर बैठकर प्राचार्यदेव उपदेश दे रहे थे । गुरुदेव के दर्शन कर, जमीन तक मस्तक झुकाकर राजा ने उनके चरण-कमलों में नमस्कार किया तथा अन्य सभी मुनियों को भी नमस्कार किया । आचार्य भगवान् ने कर्मरूपी वृक्ष को तोड़ने में तीक्ष्ण कुल्हाडी के समान 'धर्मलाभ ' आशीर्वाद से राजा का अभिनन्दन किया, वैसे ही अन्य मुनियों ने भी उसे धर्मलाभ आशीर्वाद दिया । राजा भूमि पर बैठे । कालज्ञ व्यन्तर आदि जो राजा के साथ आये थे वे भी आचार्यश्री व मुनियों को वन्दन कर योग्य स्थान पर बैठे ।
प्रतिबोधकाचार्य की देशना
आचार्यश्री का उपदेश चल
रहा था । उन्होंने अपने उपदेश में संसार की निर्गुणता ( निस्सारता ) बताकर कर्मबन्ध के हेतुनों का विस्तार से वर्णन किया । संसार रूपी कैदखाने में पड़े रहने की स्थिति के अवगुण बताते हुए निन्दा की । मोक्षमार्ग की प्रशंसा की । मोक्षसुख में कितनी विशेषता है उसे अधिक स्पष्ट रूप से समझाया । विषय सुख के लालच में पड़े रहने से किस प्रकार संसार में परिभ्रमरण होता है उसकी वास्तविकता समझाई और इस प्रकार के सुख से शिवसुख प्राप्ति में विघ्न और अनन्त काल पर्यन्त भटकते रहने की यथार्थता को
बतलाया ।
व्यन्तरों के शरीर से निर्गत स्त्री
श्राचार्य भगवान् की वाणी सुनकर कालज्ञ व्यन्तर और विचक्षरणा व्यन्तरी पर जो मोह का जाल फैला हुआ था वह दूर हुआ । उन दोनों में सम्यग्दर्शन के परिणाम जागृत हुए जिससे कर्मरूप इन्धन को जलाकर राख करने में समर्थ प्रबल पश्चात्ताप रूपी अग्नि प्रज्वलित हुई और उसी क्षण वे अपने दुष्कर्म पर पश्चात्ताप करने लगे । उस समय उनके शरीर में से एक स्त्री बाहर निकली । उस स्त्री का शरीर लाल और काले परमाणनों से बना हुआ लगता था । उसका
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