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प्रस्ताव ४ : महामोह - सैन्य के विजेता
की सम्भावना भी नहीं है ? मामा ! मैं ऐसे प्राणियों के बारे में पूछ रहा हूँ, जिनके समक्ष इन शत्रुत्रों की शक्ति नष्ट हो जाती हो और जो इन राजाओं पर विजय प्राप्त करने में प्रसिद्ध हो गये हों । [ ५६२-४६९]
विमर्श - (आदरपूर्वक मधुर स्वर में ) हे वत्स ! क्या तू ऐसे प्राणियों के बारे में पूछ रहा है, जिन्होंने अपने वीर्य से इन चारों शत्रुनों का नाश कर दिया हो ? बाह्य प्रदेश में ऐसे प्रारणी होते तो अवश्य हैं, पर वे विरले ही होते हैं । देखो, बाह्य प्रदेश के जो बुद्धिशाली प्राणी यथार्थ सद्भावना रूपी मन्त्र तन्त्रों से प्रतिपूर्ण शास्त्रों का अध्ययन कर, शास्त्र रूपी कवच से अपनी आत्मा की रक्षा करते हैं और जो एक क्षण के लिये भी (परभाव- रमण रूपी) प्रमाद नहीं करते उनका महामोह आदि सारे राजा मिलकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते, अर्थात् उनके लिए उपतापकारक नहीं होते हैं । कारण यह है कि ऐसे धीर-वीर प्राणी जिनकी बुद्धि विशुद्ध श्रद्धा से पवित्र हो गई है, वे निरन्तर अपने पवित्र मन में जगत के यथावस्थित स्वरूप का इस प्रकार विचार - चिन्तन करते हैं:
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यह संसार-समुद्र अनादि अनन्त है, महा भयंकर है, दुस्तरणीय है । ऐसे संसार में मनुष्यता प्राप्त करना, जल में परछाई देखकर ऊपर चक्र में घूमती मछली की आँख को बाण से बींधने (राधावेध ) जैसा अति विषम है । इस संसार में जो भी समस्त कार्य होते हैं उन सब के मूल में एक ही कारण है और वह है प्राशा रूपी पाशबन्धन (आशा का कच्चा धागा ) । इच्छित फल प्राप्ति की आशा में ही प्राणी काम करता है । यह जीवन देखते-देखते नष्ट होने वाला पानी के बुलबुले जैसा क्षणिक है । इसके साथ बन्धा हुआ यह शरीर अत्यन्त बीभत्स है, मल-मूत्र आदि शुचि से पूर्ण है, कर्मजन्य है, आत्मा से भिन्न है, रोग-पिशाचों का निवास स्थान हैं और क्षण भंगुर है | मनुष्य का यौवन सन्ध्याकाल के रक्त मेघ की भांति भ्रान्तिकारक एवं चपल है, अर्थात् थोड़े ही दिनों में तरुणाई का रंग उड़ जाता है । जैसे पवन के झोंको से मेघ तितर-बितर हो जाते हैं वैसे ही अनेक प्रकार की बाह्य सम्पत्तियाँ गमनशील होने से क्षरण भंगुर हैं । प्राप्त किये हुए शब्दादि पांच इन्द्रियों के भोग प्रारम्भ में कुछ-कुछ आनन्द देते हैं, किन्तु अन्त में उनका परिणाम (फल) किपाक फल के समान विषाक्त होता है । माता, पिता, पुत्र, पत्नी, भाई आदि से यह प्राणी इस अनादि भव चक्र में कई-कई बार विभिन्न रूपों में सम्बन्ध स्थापित कर चुका है । [ फिर भी घाणी के बैल की तरह इसका चक्र घूमता ही रहता है ।] एक वृक्ष पर रात्रि में अनेक पक्षी विश्राम करते हैं और प्रभात में कलरव करते हैं, परन्तु सूर्योदय होते ही जैसे वे उड़ जाते हैं, वैसे ही संसार के सगे-सम्बन्धी अमुक काल तक साथ निभाते हैं और अपना समय पूर्ण होने पर काल-कवलित होकर इस विशाल विश्व में समा जाते हैं । इस संसार में वियोगाग्नि से जलते हुए प्राणियों को अपने प्रिय व्यक्तियों से या अपनी प्रिय वस्तुओं से जो मिलन होता है, उसे स्वप्न में प्राप्त भण्डार जैसा ही समझना चाहिये, क्योंकि सभी मिलन अन्त में विलुप्त होते ही हैं,
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