Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ४: षट् दर्शनों का निर्वृत्ति-मार्ग
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माध्यमिक मत के अनुसार यह सब शून्य है । प्रमाण और प्रमेय का विभाग तो मात्र स्वप्न सदृश है । शून्यता- दृष्टि ही मुक्ति है और उसी के लिये समस्त भावनायें हैं । ये बौद्ध दर्शन के विशेष भेद हैं और उनका यह संक्षिप्त परिचय है ।
५. लोकायत ( चार्वाक ) दर्शन
वत्स ! नास्तिकों को चार्वाक. लोकायत या बार्हस्पत्य कहा जाता है । ये चार्वाक तो निवृत्तिनगर को ही नहीं मानते । इनके अनुसार मोक्ष, जीव, परलोक, पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक, आदि कुछ भी नहीं है । * मात्र पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार तत्त्व हैं । इन तत्त्वों के समुदाय में ही शरीर, इन्द्रिय और विषय ये सज्ञायें हैं । जैसे मद्य में विद्यमान मदशक्ति (नशा) उसके सभी तत्त्वों के एकत्रित होने पर प्रकट होता है वैसे ही चारों भूतों के एकत्रित होने से जो शरीर रूपी परिगति होती है उसी में चैतन्य उत्पन्न होता है । जैसे जल में बुलबुला उठता है और उसी में समा जाता है वैसे ही भूत समुदाय से चैतन्य उत्पन्न होता है और पुनः उसी में विलीन हो जाता है ।
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प्रवृत्ति और निर्वृत्ति से साध्य प्रेम को ही वे पुरुषार्थ मानते हैं । यह पुरुषार्थ काम (विषय सुख) ही धर्म है, अन्य मोक्ष आदि कुछ भी नहीं है और पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु के अतिरिक्त कोई अन्य तत्त्व भी नहीं है । इनकी मान्यता है कि प्रत्यक्ष में अनुभव होने वाले विषय सुख का त्याग कर अदृष्ट परलोक सुख के लिये प्रवृत्ति करना योग्य नहीं है । इनके अनुसार प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है । यह लोकायत मत का संक्षिप्त परिचय है ।
मीमांसा दर्शन
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मीमांसकों का मार्ग यह है कि अतीन्द्रिय पदार्थों को साक्षात् देखने वाला कोई सर्वज्ञ है ही नहीं, अतः नित्य-स्थायी वेदवाक्यों से ही यथार्थ का निर्णय होता है । इसलिये सब से पहले वेदपाठ करना चाहिये, फिर धर्म-सम्बन्धी जिज्ञासा करनी चाहिये । उसके पश्चात निमित्त की परीक्षा करनी चाहिये, प्रेरणा ही निमित्त है । कहा भी है कि, ' चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः" प्रेरणा लक्षण अर्थ ही धर्म है, अर्थात् क्रिया में प्रवृत्ति करने वाला वेदवाक्य ही धर्म है । जैसे जिसको स्वर्ग की अभिलाषा
वह अग्निहोत्र करे । अतः प्रवृत्ति को ही धर्म माना गया है. अन्य किसी प्रमाण को नहीं । क्योंकि, प्रत्यक्षादि प्रमाण तो विद्यमान को ही ग्रहण करते हैं, परन्तु धर्म तो कर्त्तव्यरूप है और कर्त्तव्य त्रिकालवर्ती है । मीमांसक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, शब्द और प्रभाव इन छः प्रमारणों को मानते हैं । यह मीमांसा दर्शन का सार है ।
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