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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
उसकी पुण्यहीनता के कारण यह रत्न पत्थर में बदल गया है। ऐसा सोचकर मैंने उसी कपड़े में रत्न के आकार का पत्थर बांधकर उसी स्थान पर और उसी दशा में दबा दिया। इस प्रकार कार्य सम्पन्न कर मैं अपने घर चला आया ।
वह दिन तो मेरा आराम से बीत गया। रात्रि में पलंग पर लेटते ही मुझे चिन्ता होने लगी कि, 'अरे! मैं रत्न घर नहीं लाया, यह तो बहुत बुरा किया। यदि किसी ने मुझे रत्न दूसरे स्थान पर छुपाते देख लिया होगा तो वह अवश्य ही उसे निकाल कर ले जायेगा। अब मुझे क्या करना चाहिए ? इस अन्धेरी रात में तो अभी वहाँ जाना अशक्य हैं। तब क्या हो ? क्या करूँ ?' इस प्रकार सच्चे-झूठे तर्क-वितर्क करने से मन इतना अधिक प्राकुल-व्याकुल और सन्तप्त हो गया कि मुझे सारी रात नींद नहीं आई, पलंग पर इधर-उधर करवट बदलते हुए ही रात बीत गई । प्रात: उठते ही जहाँ रत्न छुपाया था वहाँ मैं शीघ्रता से जा पहुँचा ।
इसी बीच विमल मेरे घर पर आया तो मैं उसे घर पर नहीं मिला। परिजनों को पूछने पर उन्होंने कहा कि 'निश्चित रूप से तो कुछ भी नहीं कह सकते, परन्तु उसे क्रीड़ानन्दन उद्यान की तरफ जाते हुए अवश्य देखा था।' विमल मेरे स्नेह से खिंचा हुआ मेरे पीछे-पीछे जिस मार्ग से मैं गया था उसी मार्ग से आया । दूर से मैंने उसे आते देखा और देखते ही घबराहट में मैं यह भूल गया कि रत्न को मैंने अन्य स्थान पर छिपाया है । फलतः रत्न के स्थान पर मैंने जो पत्थर का टुकड़ा कपड़े में लपेट कर छुपाया था, घबराहट में मैंने उसे ही खोदकर निकाल लिया और चट-पट कटि-वस्त्र में छूपा लिया और जमीन को समतल कर दिया। फिर मैं उद्यान के दूसरे हिस्से में चला गया। इतने में विमल मेरे पास आ पहुँचा । उसने देखा कि भय से मेरी आँखें बार-बार झपक रही हैं तो वह बोला--'मित्र वामदेव ! तू अकेला यहाँ क्यों आया ? अरे ! तू डर क्यों रहा है ?' मैं बोला - भाई ! प्रातः उठते ही मुझे समाचार मिला कि तुम उद्यान में आये हो अत: तुमसे मिलने में भी यहाँ
आ गया । यहाँ आकर मैंने तुमको बहुत ढूढ़ा पर तुम नहीं मिले, इस कारण से मेरा मन भय से त्रस्त हो गया कि कुमार कहाँ चले गये ? इसी चिन्ता में मेरी आँखें भयभीत प्रतीत हो रही हैं । अब तुम्हें देखकर मेरा भय दूर हो गया। अब मेरा मन स्वस्थ हो जायेगा।' मेरा उत्तर सुनकर विमल बोला- 'यदि ऐसा है तो अच्छा ही हा कि हम मिल गये । चलो, अब हम भगवान के मन्दिर में दर्शन करने चलें।' मैंने कहा-चलो।
हम दोनों जिन मन्दिर के पास आ पहुँचे। विमल मन्दिर में चला गया और में कुछ बहाना बनाकर द्वार के बाहर ही खड़ा हो गया। मैं सोचने लगा कि 'हो न हो विमल अवश्य ही सब कुछ जान गया है, अतः मैं शीघ्र ही यहाँ से भाग जाऊं,
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