Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
रत्नचूड को महाविद्याओं की प्राप्ति
रत्नचूड ने कहा-हे महाभाग्यवान बन्धु ! मुझे वापिस यहाँ आने में अधिक समय लगा जिसका कारण बताता हूँ, और आपने मुझे बध प्राचार्य को यहाँ लाने के लिये कहा था, किन्तु मैं उन्हें अभी तक नहीं ला सका हूँ। हे महाभाग्य ! उसका भी कारण बताता हूँ, सुनें-आपके पास से प्रस्थान कर मैं सीधा वैताढ्य पर्वत पर अपने नगर की ओर गया । वहाँ मेरी माता शोक-विह्वल हो रही थी और मेरे पिताजी भी शोक-सन्तप्त हो रहे थे। दिन भर उनके पास रहकर उनको धैर्य बन्धाया । परस्पर मिलने-भेंटने में वह दिन अानन्द-पूर्वक व्यतीत हो गया । रात्रि में प्रभू को नमस्कार कर में पलंग पर सो गया। परमात्मा जिनेश्वर भगवान का ध्यान करते हुए मैं बाहर से तो निद्रित जैसा लग रहा था, पर भीतर से जागत था। उस समय 'हे भुवनेश्वर भक्त ! महाभाग्यशाली ! उठो उठो' ऐसे मनोहर शब्द मेरे कान में पड़े, जिसे सुनकर मैं जागत हुआ। उस समय मैंने देखा कि अनेक देवियां अपने तेज से दिशात्रों को प्रकाशित करती हुई मेरे सामने खड़ी हैं। मैं तत्क्षण ससंभ्रम उठ खड़ा हुआ और उनकी अतुलित पूजा की। वे सब मेरी प्रशंसा करते हुए कहने लगी--'हे नरोत्तम ! जिनेश्वर-भाषित धर्म तुम्हारे मन में दृढ़ीभूत (स्थिर) हुआ है, अतः तुम धन्यवाद के पात्र हो, कृतकृत्य हो और हमारे द्वारा पूज्य हो । हम रोहिणी आदि विद्या देवियां हैं। तुम्हारे पुण्य से प्रेरित होकर तुमको पूर्ण योग्य समझकर तुम्हारा वरण करने हेतु स्वयं चलकर तुम्हारे पास आई हैं। तुम्हारे अत्यन्त निर्मल गुणों से हम तुम्हारे वशीभूत हुई हैं और हम सभी अंत:करण पूर्वक तुम्हारी अत्यन्त अनुरागिणी बनी हैं । हे धैर्यवान ! जिस भाग्यशाली के हृदय में विश्व को जाज्वल्यमान करने वाला परमेष्ठि नमस्कार मन्त्र बसा हुआ है उस प्राणी के लिये क्या कोई भी वस्तु की प्राप्ति दुर्लभ हो सकती हैं ? पंच परमेष्ठि नमस्कार मंत्र के प्रभाव से हम तुम्हारे साथ यन्त्रवत् जुड़ी हुई हैं और तुम्हारी किंकरियां बनकर स्वयं तुम्हारे पास आई हैं। हे पुरुषोत्तम! हम तुम्हारे शरीर में प्रवेश करेंगी। हमें प्राज्ञा दीजिए। भविष्य में आप चक्रवर्ती बनेंगे। विद्याधरों की यह विशाल सेना हमारे आदेश से अब आपके अधीनस्थ हो गई है।* यह समस्त विशाल सेना अब आपको स्वामी स्वीकार कर अभी आपके द्वार पर खड़ी है।' उनके ऐसा कहते ही देदीप्यमान कुंडल, बाजूबन्द और मुकुटों की मरिणयों की प्रभा से दिशाओं को प्रकाशित करते हुए अनेक विद्याधरों ने आकर मुझे नमस्कार किया। [६०-७५]
उसी समय प्रातःकाल की नौबत गड़गड़ा उठी और काल-निवेदक ने सूचित किया-सूर्य अपने स्वभाव से संसार में उदित हुआ है जो मनुष्यों की स्थूल दृष्टि के प्रसार को बढ़ाता है और मानवों को प्रबोध (जाग्रत) करता है । विशुद्ध सद्धर्म
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