Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ५ : बुधसूरि : स्वरूप-दर्शन
कषायों के ताप से वे सर्वदा तप्त ही रहते हैं । हे नप ! जबकि दूसरी ओर साधुगण सतत शांत मन वाले, निष्कषाय और पापरहित होने से निस्ताप रहते हैं । यद्यपि बाह्य दृष्टि से वे ताप-पीड़ित दिखाई देते हैं, तथापि परमार्थ से उन्हें ताप से दूर ही समझना चाहिये । हे राजेन्द्र ! इसीलिये मैंने पूर्व में कहा था कि तुम सब तापपीड़ित हो, मैं नहीं। [१६५-१६६] ६. कोढ :
हे नरेन्द्र ! जैसे सामान्यतया कोढ की व्याधि होने पर शरीर में कृमि पैदा हो जाते हैं, हाथ-पैरों से कोढ झरता रहता है, नाक चपटी अथवा नष्ट हो जाती है, अावाज घर्घर (मोटी) और अव्यक्त हो जाती है वैसे ही हे राजन् ! मनीषियों ने मिथ्यात्व, अज्ञान अथवा कुदेव कुगुरु कुधर्म में श्रद्धा को ही कुष्ठ व्याधि कहा है । इस कोढ से ग्रसित होने पर संसारी प्राणियों में अनेक प्रकार के कुविकल्प रूपी कृमि उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे उनका आस्तिकता रूपी रस गलता रहता है, रूप नष्ट हो जाता है, सद्बुद्धि रूपी नासिका चपटी हो जाती है और मदोन्मत्तता के कारण उनकी वाणी भी घर्घर और अस्पष्ट हो जाती है। सम, संवेग, निर्वेद और करुणारूपी जो हाथ-पैर की अंगुलियां हैं वे मूल से नष्ट हो जाती हैं। इसीलिये हे पृथ्वीनाथ ! विद्वज्जनों ने संसारी मूढ प्राणियों को सर्वदा मिथ्यात्वरूपी कोढ के उद्वेग से ग्रसित कहा है। यद्यपि वे सर्व अवयवों से सुन्दर दिखाई देते हैं, तथापि भाव (अन्तरंग दृष्टि) से उनके शरीर के समग्र अवयव कृमिजाल से क्षत-विक्षत ही समझना चाहिये । दूसरी ओर मुनिगण सम्यग्भाव (सम्यक्त्व) से पवित्र और मिथ्यात्व से रहित होने से उन्हें यह मिथ्यात्व रूपी कोढ नहीं होता, अतः उन्हें सर्व अवयवों से सुन्दर समझना चाहिये । हे नृपति ! यदि कभी बाह्य शरीर से वे कूष्ठ-ग्रसित भी दिखाई दें तब भी वे मानसिक कुष्ठ से रहित होने से कोढी नहीं हैं, ऐसा समझना चाहिये। इसी दृष्टि से विचार कर मैंने कहा था कि तुम सब कोढग्रस्त हो, मैं नहीं। [१७०-१७७]
७. शूल-पीड़ा
हे राजन् ! प्राणियों को जब अन्य प्राणी पर द्वष-भाव उत्पन्न होता है तब उसकी समृद्धि को देखकर उस पर ईर्ष्या होती है, उसे ही विद्वान् पुरुष शूल-पीड़ा कहते हैं। इस ईर्ष्या रूपी शूल से आक्रांत प्राणियों के हृदय में प्रतिक्षण टीस उठती रहती है और वे दूसरों को दुःखी देखकर प्रसन्न होते हैं । द्वष से धधकते हुए वे बार-बार अपने चेहरे को विकृत करते हैं । किन्तु, हे राजन् ! सर्वत्र समान चित्तवाले
और द्वष-रहित साधुओं को यह महाशूल नहीं होता। इसी कारण को ध्यान में रखकर मैंने पहले कहा था कि तुम सब शूल से पीड़ित हो, मैं नहीं।
[१७८-१८१]
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