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उपमिति भव-प्रपंच कथा
को विलासिता, पाण्डित्य, बुद्धिमत्ता, चातुर्य, विविध देशों की भाषाओं का ज्ञान और व्यवहार- सौष्ठव का ज्ञान एवं अनुभव हो ही कैसे सकता है ? [ ४६१-४६३]
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तू इस महान् भवचक्र नगर को देखने आया यह बहुत ही अच्छा किया । हे वत्स ! यह नगर अनेक घटनाओं का मन्दिर है, अनेक नूतन एवं अद्भुत वस्तुनों का संगम है तथा चतुर मनुष्यों से व्याप्त है । जिस प्रारणी ने इस नगर को अच्छी तरह देख लिया उसने समस्त चराचर विश्व को देख लिया; [ क्योंकि यहाँ स्वर्ग, मृत्यु और पाताल का समावेश हो जाता है ।] अधिक क्या कहूँ, वत्स ! तू स्वयं चलकर यहाँ आया और सौभाग्य से मेरी दृष्टि तुझ पर पड़ गई, अतः मैं धन्य हूँ, भाग्यशाली हूँ और कृतकृत्य हूँ । [४६४-४६७]
उत्तर में मैंने कहा - हे अम्ब ! जैसा आप कह रही हैं यदि वैसा ही है* तो मैं मानता हूँ कि मेरे भाग्य ने मुझे प्राप जैसी माता से मिलन करवाकर सर्वश्रेष्ठ कार्य किया है । हे माताजी ! अब आप मुझ पर महती कृपा कर मुझे यह समस्त भवचक्र नगर अच्छी तरह दिखावें । [ ४६८-४६९]
भवचक्र-दर्शन
विचार अपने पिता बुधराज से कह रहा है कि मेरी मार्गानुसारिता मौसी ने मेरा उत्तर सुनकर मेरी प्रार्थना को स्वीकार किया और विविध घटनाओं के साथ समग्र भवचक्र नगर मुझे साथ लेकर दिखलाया । इस नगर में भ्रमण करते हुए दूर से मैंने एक नगर देखा, जिसके मध्य में एक बड़ा पहाड़ और उसके शिखर पर बसा हुआ दूसरा नगर था । यह देखकर मैंने मौसी से पूछा - 'हे मात ! भवचक्र नगर के मध्य में यह कौनसा पुर है ? यह कौनसा महागिरि है ? और पर्वत शिखर पर स्थित कौनसा पुर है ?' मेरा प्रश्न सुनकर मार्गानुसारिता मौसी ने कहा - 'पुत्र ! क्या तू नहीं जानता ! यह तो जगत् में सुप्रसिद्ध सात्विकमानसपुर है, यह विश्वविख्यात विवेकगिरि पर्वत है और इसके अप्रमत्त नामक शिखर पर स्थित त्रिभुवन विख्यात जैनपुर नामक महानगर है । तू तो तत्त्वसार का ज्ञाता है फिर तूने ऐसा प्रश्न क्यों किया ?' [४७०-४७५]
घायल संयम
मौसी के साथ मेरी बात हो ही रही थी कि एक नवीन घटना घटित हुई । घटना सुनिये
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मैंने देखा कि गाढ प्रहारों से आहत और विह्वल एक राजपुत्र को अन्य पुरुष उठाकर ला रहे हैं और उसको घेरे हुए बहुत से पुरुष हैं । उसे देखते ही मैंने मौसी से पूछा – माताजी ! यह राजपुत्र जैसा घायल पुरुष कौन है ? इस पर इतने गाढ प्रहार किसने किये हैं ? इसे ये पुरुष कहाँ ले जा रहे हैं ? और इसकी सेवा में कौन लोग खड़े हैं ? [४७६-४७८]
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