Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ५ : मोहराज और चारित्रधर्मराज का युद्ध होकर नृत्याभिमुख मयूरिका को, रात्रि विरह के पश्चात् चक्रवाक को देखकर चकवी को, निरभ्र शरद् ऋतु में चन्द्रकला की सुन्दरता को देखकर किसी को भी प्रानन्द होता है वैसा ही आनन्द मुझे अपलक दृष्टि से देखकर उस शान्त साध्वी स्त्री को हो रहा था । मानो उसका किसी राज्य सिंहासन पर अभिषेक हो रहा हो अथवा सुखसागर में डुबकी लगा रही हो, वैसी ही आनन्द दशा का वह अनुभव कर रही थी। उसे हर्ष-विभोर देखकर मुझे भी आनन्द हुअा “स्नेह से परिपूर्ण सज्जन पुरुष को देखने से चित्त अवश्य ही आर्द्र/प्रेममय हो जाता है," इस साधारण नियम के अनुसार मैं भी उसके प्रति आकर्षित हुा । मैंने उसे प्रणाम किया और उसने मुझे आशीर्वाद दिया।
फिर वह बोली--हे वत्स ! * मेरे हृदयनन्दन ! तू कौन है ? कहाँ से आया है ? बतला।
उत्तर में मैंने कहा- 'मैं धरातल नगर निवासी बुधराज और धिषणा माता का पुत्र हूँ और ज्ञान प्राप्त करने के लिए विदेश यात्रा करता हुआ इधर आ निकला हूँ।' मेरा उत्तर सुनकर उसकी आँखों में हर्ष के आँसू आ गये और स्नेहपूर्वक मुझसे मिलकर, बार-बार मुझे चूमती हुई मेरे सिर को सूघने लगी। [४४१-४५२] वह फिर बोली
हे महाभाग्य ! तू यहाँ आया यह बहुत ही अच्छा किया। पुत्र! तेरे हृदय और आँखों से मैंने पहले ही तुझे पहचान लिया था। मनुष्य के नेत्र और हृदय जाति-स्मरण के हेतु हैं, जिसे देखने मात्र से ही प्रिय अथवा अप्रिय का ज्ञान हो जाता है । प्रिय वत्स! तू तो मुझे प्राय:कर नहीं जानता, क्योंकि जब मैंने तुझे छोड़ा था तब तू बहुत छोटा था । तेरी माता धिषणा मेरी प्रिय सखी है और बुधराज का भी मुझ पर बहुत स्नेह है । मेरा नाम मार्गानुसारिता है। तेरी पापरहित पवित्र माता तो मेरा शरीर, जीवन, प्राण और सर्वस्व है और तेरे पिता बुधराज तो मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं । उन दोनों की आज्ञा से जब मैं लोकदर्शन के लिये निकली थी तब तो तेरा जन्म ही हुया था। अतः हे सुन्दर पुत्र! तू तो मेरा भानजा है, मेरा जीवन है । प्रिय वत्स ! तू मेरा सर्वस्व है और मेरा परमात्मा है । वत्स ! तू देश-भ्रमण के लिए घर से निकला यह अच्छा ही किया। मुझे तो निःसंशय ऐसा लगता है कि तू बहुत ही जिज्ञासु है । [४५३-४६०] कहा भी है:
__यह संसार अनेक प्रकार की घटनाओं और कुतूहलों से भरा पड़ा है, जो प्राणी घर से निकल कर उसको आदि से अन्त तक नहीं देखता वह कूप-मण्डक जैसा है । अर्थात् ऐसे व्यक्ति के लिए संसार बहुत छोटा होता है और उसकी दृष्टि भी सीमित होती है । धूर्तों की धूर्तता और छल-कपट से भरी हुई तथा विविध घटनाचक्रों से परिपूरित इस पृथ्वी को जब तक अनेक बार न देख ले तब तक उस पुरुष • पृष्ठ ५३१
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