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प्रस्ताव ५ : कथा का उपनय एवं कथा का शेष भाग
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जैसे शिवभक्तों ने सारगुरु को बार-बार टोका, समझाया, वैसे ही जैन दर्शन के प्रबुद्ध विद्वानों को समझना जो इस जीव को प्रतिक्षण रोकते हैं और इस जीव को बार-बार समझाते हैं कि, हे जीवलोक ! तुझे इन राग-द्वेष आदि चोरों की संगति नहीं करनी चाहिये, ये तेरे भाव शत्रु हैं और सर्वस्व हरण करने वाले दुष्ट हैं । किन्तु, कर्म के प्रवल उन्माद में विह्वल बना संसारी जीवलोक सारगुरु के समान ही उनके हितकारी वचनों की अवगणना कर, हृदय से राग-द्वेष आदि शत्रुओं को ही अपना श्रेष्ठ सुहृद् व भाग्यशाली और हितेच्छु मित्र मानता है । जैसे शिवभक्तों ने वस्तुस्थिति और उसकी मूर्खता को जानकर सारगुरु का बठरगुरु नामकरण कर उसके पास जाना छोड़ दिया था वैसे ही जैन दर्शन के प्रबुद्ध साधु, मुनि महात्मा भी यह जानकर कि यह जीव भी राग-द्वषादि धूर्तों से घिरा हुआ है, अतः मूर्ख समझ कर उसे छोड़ देते हैं। [२६२-२६७]
___ कथा प्रसंग में पहले कह चुके हैं कि जैसे भूख से व्याकुल होने पर बठरगुरु ने उन धूर्त तस्करों से भोजन की याचना की तब उन तस्करों ने बठरगुरु के हाथ में मिट्टी का खप्पर देकर, शरीर पर मषी के तिलक आदि लगाकर भिक्षा मंगवाई वैसे ही इस जीव के साथ भी समान रूप से घटित होता है। [२६८-२६६]
राग आदि के वश में पड़ा हुआ प्राणी भोग भोगने की उत्कट इच्छा वाला बन जाता है, अतः अपने माने हुए राग-द्वषादि मित्रों के समक्ष जब अपनी भोगेच्छा प्रकट करता है * तब बठरगुरु की तरह राग-द्वष आदि गर्वोन्मत्त धूर्त चोर प्राणी को भोगों की भिक्षा मांगने को विवश करते हैं। भिक्षा हेतु भ्रमण करने की विधि इस प्रकार है :--काले पाप कर्मों जैसे सारे शरीर पर गहरे काले दागों से अच्छी तरह से चचित कर, विशाल नरक के आयुष्य रूपी मिट्टी का ठीकरा उसके हाथ में दे देते हैं । भव गांव में जो चार मोहल्ले अतिजघन्य, जघन्य, उत्कृष्ट और अत्युत्कृष्ट कहे गये हैं उन्हें क्रमशः नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव गति समझना चाहिये । मिट्टी का खप्पर, सकोरा, ताम्रपात्र और रजत पात्र को भी क्रमशः नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतियों का आयुष्य समझना चाहिये । यह जीव भी भाव-चोरों से घिरकर पापात्मा नरक गति रूप प्रथम मोहल्ले में भटकता है। वहाँ मांगने पर भी उसे भोग-भोजन नहीं मिलता, किन्तु क्षुद्रजनों के समान भयानक नरकपालों द्वारा उत्पीड़ित किया जाता है । इस प्रकार तीव्र अनन्त महादु:ख का अनुभव कर प्रायुष्यरूपी खप्पर/ठीकरे के टूट जाने पर यह जीव किसी अन्य गति में प्रविष्ट होता है। फिर भव ग्राम के दूसरे मोहल्ले के समान यह भोगेच्छु लम्पट प्राणी तिर्यंच योनि में जाता है। वहाँ भी वह भटकता है किन्तु उसकी भोगेच्छा पूरी नहीं होती और वह अधमजनों द्वारा केवल भूख-प्यास आदि विविध कष्टों को भोगता है। सकोरे रूपी तिर्यञ्च आयुष्य के फूट जाने पर, कुछ पुण्य की प्राप्ति होने पर वह तीसरे उत्कृष्ट मोहल्ले में अर्थात् मनुष्य गति में आता है। वहाँ कुछ पुण्योदय से * पृष्ठ ५२१
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