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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
उसे आन्तरिक ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, जिसे छाया कहा गया है। हे महाराज! उस छाया रूपी पुण्योदय के फल-स्वरूप यहाँ प्राणी की भोगेच्छा कुछ-कुछ पूरी होती है, किन्तु यहाँ भी धूर्त तस्कर, राजभय आदि के समान राग-द्वेष रूपी धूर्त उसे अनेक प्रकार से पीड़ित करते हैं। ताम्र-पात्र के भग्न होने पर जैसे बठरगुरु चौथे अत्युत्कृष्ट मोहल्ले में ले जाया जाता है, उसी प्रकार हे नरेन्द्र ! मनुष्य आयुरूप ताम्रपत्र के भग्न होने पर कभी जीव देवगति को भी प्राप्त होता है । यहाँ जीव की अन्तरंग ऐश्वर्य रूपी गुणरत्नों की छाया अधिक गहरी और विशाल होती है, अतः वह जीव यहाँ अत्यधिक भोगों को प्राप्त करता है। वह जीव देवलोक में रजतपात्र के आकार के समान देव भव की आयुष्य को भोगता है और इस गति में यथेच्छ भोगरूपी भोजन प्राप्त करता है। [३००-३१७]
हे महाराज ! जैसे बठरगुरु भूख लगने पर भव ग्राम में भिक्षा के लिये बारम्बार इधर-उधर भटकता है, कर्मयोग से उन्मत्त रहता है, पाप-मसि से विलेपित रहता है राग-द्वेष रूपी धूर्त उसको चारों ओर से घेर कर हुँकार करते हैं, हँसते हैं,* गाते हैं, चिल्लाते हैं, नाचते हैं, उद्दाम लीला करते हैं और अनेक गति रूप घरों में जब जीव भटकता है तब उसी के साथ रहते हैं। [३१८-३२०]
बठर गुरु प्राप्त भिक्षा से मन में प्रसन्न होता है, पर वह बेचारा यह जान भी नहीं पाता कि उसके रत्नादि वैभवों से परिपूर्ण मन्दिर पर और उसके स्नेहशील हितेच्छु कुटुम्ब पर धूर्तों ने अधिकार कर रखा है जिससे वह दुःख-समुद्र के मध्य में फंसा हुआ स्वयं के स्वरूप को नहीं पहचान पाता । केवल मोहदोष की अधिकता से सन्तुष्ट
और सुखी मानता हुआ, विविध चेष्टायें करता हुआ स्वकीय आत्मा की अधिकाधिक बिडम्बना करता है वैसे ही यह प्राणी जब संसार में कदाचित् तुच्छ वैषयिक सुख, इन्द्रत्व, देवत्व, राज्य, रत्न, धन, पुत्र, स्त्री आदि को प्राप्त करता है तब वह मिथ्याभिमानपूर्वक अपने को पूर्ण सुखी मानने लगता है । वह इस तुच्छ सुख में इतना डूब जाता है कि उसे सच्चे सुख की ओर आँख उठाकर देखने का भी समय नहीं मिलता और तनिक सोच-विचार भी नहीं करता । हे राजन् ! जैसे तुम्हारी इस सभा में बैठे लोग यह मानते हैं कि अहो ! उन्हें सुख मिल गया, अहो ! उन्हें स्वर्ग मिल गया और वे अपने को कृतार्थ समझने की भूल करते हैं । पर, यह नहीं समझते कि उनका स्वयं का आत्म-स्वरूपज्ञान, दर्शन, वीर्य, आनन्द प्रादि अनन्त अमूल्य रत्नों से भरा हुआ है । ये पामर यह भी नहीं जानते कि महामूल्यवान रत्नों से परिपूर्ण स्वकीय आत्मा का स्वरूप जिसे मन्दिर के समान कहा गया है उसे राग-द्वेष रूपी चोरों ने हरण कर लिया है । ये यह भी नहीं जानते कि क्षमा, मार्दव, सरलता, निर्लोभता, सत्य आदि मेरा भाव-कुटुम्ब ही वास्तव में मेरा है और जो प्रियकारी एवं हितवर्धक है । रागद्वष रूपी शत्रों से घिरे प्राणी को यह भी जानकारी नहीं होती कि इन दुष्ट धूर्तों ने चित्तरूपी कारागृह में उसे डालकर, उसके आत्म-स्वरूप को जकड़ कर कैद कर लिया
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